यह श्लोक भगवद गीता, अध्याय 6, श्लोक 31 से है। यह संस्कृत में लिखा गया है और हिंदी में इसका अनुवाद इस प्रकार है:
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थित: |
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते || 31 ||
"इस श्लोक में योगी के आदर्श गुणों को प्रकट किया गया है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो व्यक्ति यह जानता है कि मैं (भगवान) हर प्राणी में एक समान रूप से निवास करता हूँ और इसी एकता के भाव में स्थित रहकर मेरी भक्ति करता है, वह वास्तव में योग का उच्चतम स्तर प्राप्त कर लेता है। ऐसा योगी चाहे जिस भी परिस्थिति में हो, वह सदैव मुझमें स्थित रहता है, क्योंकि उसके मन में भेदभाव या अलगाव का विचार नहीं होता।"
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो व्यक्ति यह समझते हुए कि मैं (ईश्वर) सभी प्राणियों में स्थित हूँ, और सभी में एकता का भाव अनुभव करता है, वह मुझमें पूर्ण रूप से स्थित हो जाता है। अर्थात, जो व्यक्ति यह जानता है कि ईश्वर सभी प्राणियों में एक समान रूप से मौजूद है और इस भावना के साथ मेरी पूजा करता है, वह सच्चे योगी की तरह जीवन के हर परिस्थिति में मुझमें स्थित रहता है।
सर्वभूतस्थितं – सभी प्राणियों में स्थित
यो – जो
मां – मुझे
भजति – भजता है, पूजता है, या प्रेम करता है
एकत्वमास्थित: – एकता में स्थित होकर, अद्वैत भाव में स्थित होकर
सर्वथा – सभी प्रकार से
वर्तमान: – जो स्थित है, जो रहता है
अपि – भी
स – वह
योगी – योगी
मयि – मुझमें
वर्तते – स्थित होता है, रहता है