यह श्लोक भगवद गीता, अध्याय 6, श्लोक 33 से है। यह संस्कृत में लिखा गया है और हिंदी में इसका अनुवाद इस प्रकार है:
अर्जुन उवाच |
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्त: साम्येन मधुसूदन |
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम् || 33 ||
"इस श्लोक में अर्जुन, भगवान श्रीकृष्ण से कहते हैं कि आपने जो योग की शिक्षा दी है, वह साम्यभाव पर आधारित है। लेकिन, मेरी चंचल बुद्धि के कारण मुझे इस योग को स्थिर रूप में देखने या समझने में कठिनाई हो रही है। अर्जुन यहाँ मन की अस्थिरता और योग की कठिनाई पर प्रश्न उठा रहे हैं।"
यह श्लोक भगवद्गीता के छठे अध्याय का हिस्सा है, जिसमें भगवान कृष्ण ने ध्यान योग और मानसिक स्थिरता पर चर्चा की है। अर्जुन की यह चिंता आम इंसानों की चुनौती को दर्शाती है कि चंचल मन को नियंत्रित करना और योग में स्थिर रहना कितना कठिन है।
अर्जुन: महाभारत के नायक, भगवान कृष्ण के शिष्य।
उवाच: कहा।
य: जो।
अयम: यह।
योग: योग, यानी आध्यात्मिक या मानसिक संतुलन।
त्वय: आपके द्वारा।
प्रोक्त: बताया।
सम्येन: समान रूप से, तटस्थ रूप से।
मधुसूदन: श्री कृष्ण का एक नाम, मधु नामक राक्षस का वध करने वाले।
एतस्य: इसका।
अहम: मैं।
न पश्यामि: मैं नहीं देखता।
चंचलत्वात: चंचलता के कारण।
स्थिति: स्थिरता।
स्थिरम्: स्थिर।