यह दोहा तुलसीदास जी के द्वारा रचित "रामचरितमानस" से हैं।
होइ अकाम जो छल तजि सेइहि।
भगति मोरि तेहि संकर देइहि॥
मम कृत सेतु जो दरसनु करिही।
सो बिनु श्रम भवसागर तरिही॥
भावार्थ:- जो छल छोड़कर और निष्काम होकर श्री रामेश्वरजी की सेवा करेंगे, उन्हें शंकरजी मेरी भक्ति देंगे और जो मेरे बनाए सेतु का दर्शन करेगा, वह बिना ही परिश्रम संसार रूपी समुद्र से तर जाएगा॥
जो छल और कपट छोड़ देता है, वह अकाम हो जाता है। उसी भगवान की भक्ति मेरे अनुसार संसार को पार करा देती है। मेरे लिए जो सेतु है, वह सिर्फ उसका दर्शन करना है, जो बिना किसी परिश्रम के संसार के सागर को पार करा देता है।