यह श्लोक भगवद गीता, अध्याय 6, श्लोक 42 से है। यह संस्कृत में लिखा गया है और हिंदी में इसका अनुवाद इस प्रकार है:
प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वती: समा: |
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते || 42 ||
"या फिर वह साधक बुद्धिमान और आध्यात्मिक योगियों के परिवार में जन्म लेता है। ऐसा जन्म इस संसार में अत्यंत दुर्लभ और मूल्यवान होता है।"
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में यह समझाने का प्रयास कर रहे हैं कि कोई भी आध्यात्मिक प्रयास व्यर्थ नहीं जाता। योग में असफल व्यक्ति भी अगले जन्म में अधिक उन्नत परिस्थितियों में जन्म लेकर अपनी साधना को जारी रख सकता है। ऐसा जन्म अत्यंत दुर्लभ होता है क्योंकि यह व्यक्ति को सीधे मोक्ष के मार्ग पर ले जाने में सहायक होता है।
यह श्लोक साधकों को यह विश्वास दिलाता है कि उनकी साधना और आध्यात्मिक प्रयासों का परिणाम हमेशा सकारात्मक होगा।
अथवा - या फिर
योगिनाम् - योगियों (आध्यात्मिक साधकों)
एव - ही
कुले - कुल में, परिवार में
भवति - होता है, जन्म लेता है
धीमताम् - बुद्धिमान, विवेकशील
एतत् - यह
हि - निश्चय ही
दुर्लभतरम् - अत्यंत दुर्लभ, बहुत कठिनाई से मिलने वाला
लोके - संसार में
जन्म - जन्म
यद् ईदृशम् - ऐसा, इस प्रकार का