यह श्लोक भगवद गीता, अध्याय 6, श्लोक 27 से है। यह संस्कृत में लिखा गया है और हिंदी में इसका अनुवाद इस प्रकार है:
प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम् |
उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम् || 27 ||
"जिस योगी का मन पूरी तरह से शांत है, उसे सर्वोच्च सुख की प्राप्ति होती है। उसका मन रजोगुण (चंचलता और विकार) से मुक्त हो जाता है। ऐसा योगी ब्रह्मस्वरूप (ब्रह्म के समान) हो जाता है और सभी दोषों (पापों) से मुक्त रहता है"
यह श्लोक एक योगी की उस अवस्था का वर्णन करता है जहां वह ध्यान और साधना के माध्यम से आत्मिक शांति प्राप्त करता है। इस स्थिति में योगी का मन स्थिर और शांत होता है, और उसे आंतरिक सुख की अनुभूति होती है। वह व्यक्ति सभी विकारों और चंचलताओं से मुक्त होकर ब्रह्म के समान हो जाता है। इस प्रकार, इस श्लोक के माध्यम से श्रीकृष्ण योगियों के ध्यान और साधना के महत्व पर जोर देते हैं और बताते हैं कि ध्यान के द्वारा व्यक्ति किस तरह आत्मिक शांति और परम आनंद की प्राप्ति कर सकता है।
प्रशान्त - अत्यंत शांत
मनसं - मन वाला (जिसका मन है)
हि - निश्चय से, वास्तव में
एनं - इस (योगी को)
योगिनं - योगी (ध्यान में स्थित व्यक्ति)
सुखम् - आनंद, खुशी
उत्तमम् - सर्वोच्च, सबसे श्रेष्ठ
उपैति - प्राप्त होता है, प्राप्त करना
शान्त - शांत, शांतिपूर्ण
रजसं - रजोगुण (मन की चंचलता और विकार)
ब्रह्मभूतम् - ब्रह्मस्वरूप, ब्रह्म के समान
अकल्मषम् - दोष रहित, पवित्र