यह श्लोक भगवद गीता, अध्याय 6, श्लोक 38 से है। यह संस्कृत में लिखा गया है और हिंदी में इसका अनुवाद इस प्रकार है:
कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति |
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मण: पथि || 38 ||
अर्जुन कहते हैं, "हे महाबाहु (श्रीकृष्ण), क्या ऐसा व्यक्ति, जो न तो सांसारिक जीवन में स्थिर है और न ही आध्यात्मिक साधना में सफल है, कटे हुए बादल की तरह नष्ट हो जाता है? क्या उसकी स्थिति अस्थिर और भ्रमित होकर ब्रह्म के पथ पर विलुप्त हो जाती है?"
यह श्लोक भगवद्गीता के छठे अध्याय (ध्याय योग) से लिया गया है। इसमें अर्जुन अपने मन में उठने वाले एक अत्यंत गहन और जिज्ञासापूर्ण प्रश्न को व्यक्त करते हैं। वह पूछते हैं कि यदि कोई साधक अपनी साधना के मार्ग पर अडिग नहीं रह पाता और सांसारिक जीवन से भी कट जाता है, तो क्या उसकी अवस्था कटे हुए बादल जैसी हो जाती है, जो कहीं भी टिक नहीं पाता और अंततः नष्ट हो जाता है?
कच्चित्: - क्या ऐसा है कि।
न: - नहीं।
उभयविभ्रष्ट: - दोनों से भ्रष्ट (सांसारिक और आध्यात्मिक, दोनों मार्गों से)।
छिन्नाभ्रम्: - कटे हुए बादल की तरह।
इव: - की तरह।
नश्यति: - नष्ट हो जाता है।
अप्रतिष्ठ: - जिसकी कहीं प्रतिष्ठा (स्थिरता) नहीं है।
महाबाहो: - हे महाबाहु (श्रीकृष्ण को संबोधन)।
विमूढ: - भ्रमित, अज्ञान से ग्रस्त।
ब्रह्मण: पथि: - ब्रह्म के पथ (आध्यात्मिक मार्ग) पर।