यह श्लोक भगवद गीता, अध्याय 6, श्लोक 43 से है। यह संस्कृत में लिखा गया है और हिंदी में इसका अनुवाद इस प्रकार है:
तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम् |
यतते च ततो भूय: संसिद्धौ कुरुनन्दन || 43 ||
"उस अवस्था में, वह व्यक्ति अपने पिछले जन्म के आध्यात्मिक संस्कारों से उत्पन्न बुद्धि प्राप्त करता है और फिर से सिद्धि (मोक्ष) प्राप्त करने के लिए प्रयास करता है, हे कुरुवंशी अर्जुन।"
यह श्लोक यह बताता है कि जो व्यक्ति अपने पिछले जन्म में योग और आध्यात्मिक प्रयासों के माध्यम से सिद्धि के करीब पहुंचा था, वह अगले जन्म में उन प्रयासों के फलस्वरूप स्वाभाविक रूप से आध्यात्मिक ज्ञान और प्रवृत्ति प्राप्त करता है। ऐसे व्यक्ति को अपने आत्मविकास के मार्ग पर आगे बढ़ने में सरलता होती है, और वह निरंतर सिद्धि की ओर प्रयत्न करता रहता है।
तत्र - वहां, उस स्थिति में (पिछले जन्म के संस्कार के प्रभाव से)।
तं - उसे, उस व्यक्ति को।
बुद्धिसंयोगं - आध्यात्मिक बुद्धि और ज्ञान का जुड़ाव।
लभते - प्राप्त करता है।
पौर्वदेहिकम् - पिछले जन्म का, पूर्व देह (शरीर) से संबंधित।
यतते - प्रयास करता है।
च - और।
ततो - फिर, उसके बाद।
भूयः - अधिक, और।
संसिद्धौ - पूर्णता, सिद्धि या मोक्ष।
कुरुनन्दन - कुरु वंश के आनंददाता (अर्जुन के लिए संबोधन)।