यह श्लोक भगवद गीता, अध्याय 6, श्लोक 44 से है। यह संस्कृत में लिखा गया है और हिंदी में इसका अनुवाद इस प्रकार है:
तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम् |
यतते च ततो भूय: संसिद्धौ कुरुनन्दन || 44 ||
"जो व्यक्ति पिछले जन्मों में योग का अभ्यास कर चुका होता है, वह जन्म से ही उस अभ्यास के प्रभाव से प्रेरित होकर योग की ओर खिंचता है, भले ही वह अनजाने में या अनिच्छा से ऐसा करे। ऐसा जिज्ञासु व्यक्ति, जो योग का अभ्यास करना चाहता है, वह वेदों के कर्मकांड से ऊपर उठकर उच्चतर आत्मज्ञान की ओर बढ़ जाता है।"
इस श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन को यह बता रहे हैं कि यदि किसी व्यक्ति ने पिछले जन्म में योग का अभ्यास किया हो, तो वह व्यक्ति अपने पिछले अभ्यास के प्रभाव के कारण इस जन्म में भी योग के मार्ग पर आगे बढ़ता है।