हिन्दू धर्म में एकादशी का व्रत महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। ज्येष्ठ मास की कृष्ण पक्ष की एकादशी को अचला एकादशी कहते है। अचला एकादशी को अपरा एकादशी भी कहा जाता है।
इस व्रत के करने से ब्रह्महत्या, परन्दिा, गर्भस्थ शिशु को मारने वाला, परस्त्रीगामी जैसे निकृष्ट कर्मों से छुटकारा मिल जाता है तथा कीर्ति, पुण्य एवं धन धान्य में अभिवृद्धि होती है। ऐसा भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा था।
प्राचील काल में महीध्वज नामक धर्मात्मा राजा राज्य करता था। विधि की विडंबना देखिये कि उसकी का छोटा भाई वज्रध्वज बड़ा ही क्रूर, अधर्मी तथा अन्यायी था। वह अपने बड़े भाई को अपना बैरी समझता था। उसने एक दिन अवसर पाकर अपने बड़े भाई राजा महीध्वज का हत्या कर दी और उसके मृत शरीर को जंगल में पीपल के वृक्ष के नीचे गाड़ दिया।
राजा की आत्मा पीपल पर वास करने लगी और आने जाने वालों को सताने लगी। अकस्मात् एक दिन धौम्य ऋषि उधर से निकले। उन्होंने तपोबल से प्रेत के उत्पात का कारण तथा उसके जीवन वृतांत को समझ लिया। ऋषि महोदय ने प्रसन्न होकर प्रेत को पीपल के वृक्ष से उतारकर परलोक विद्या का उपदेश दिया। दयालु ऋषि ने राजा की प्रेत योनि से मुक्ति के लिए स्वयं ही अपरा (अचला) एकादशी का व्रत किया और उसे अगति से छुड़ाने को उसका पुण्य प्रेत को अर्पित कर दिया। इस पुण्य के प्रभाव से राजा की प्रेत योनि से मुक्ति हो गई। वह ऋषि को धन्यवाद देता हुआ दिव्य देह धारण कर पुष्पक विमान में बैठकर स्वर्ग को चला गया।