आश्विन मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी को पापाकुंशा एकादशी कहते हैं। यह एकादशी पापरूपी हाथी को महावत रूपी अंकुश से बेधने के कारण पापाकुंशा एकादशी कहलाती है। इस दिन भगवान विष्णु की पूजा करनी चाहिए एवं ब्राह्माणों को भोजन कराकर दक्षिणा देकर विदा करना चाहिए। इस एकादशी का व्रत रखने से समस्त पापों का नाश हो जाता है। इस दिन पर भगवान ‘पद्मनाभ’ की पूजा भी की जाती है।
एकादशी के व्रत को समाप्त करने को पारण कहते हैं। एकादशी व्रत के अगले दिन सूर्योदय के बाद पारण किया जाता है। एकादशी व्रत का पारण द्वादशी तिथि समाप्त होने से पहले करना अति आवश्यक है। यदि द्वादशी तिथि सूर्योदय से पहले समाप्त हो गयी हो तो एकादशी व्रत का पारण सूर्योदय के बाद ही होता है और ऐसा करना पाप के समान होता है।
कभी कभी एकादशी व्रत लगातार दो दिनों के लिए हो जाता है। जब एकादशी व्रत दो दिन होता है तब स्मार्त-परिवारजनों को पहले दिन एकादशी व्रत करना चाहिए। दूसरे दिन वाली एकादशी को दूजी एकादशी कहते हैं।
भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए इस मंत्र का जाप करना चाहिए।
ॐ नमोः नारायणाय. ॐ नमोः भगवते वासुदेवाय ||
विन्ध्याचल पर्वत पर एक महाक्रूर बहेलिया रहता था जिसका कर्म के अनुसार नाम भी क्रोधन था। उसने अपना समस्त जीवन हिंसा, लूटपाट, मिथ्या भाषण तथा शराब पीना व वेश्यागमन में ही बिता दिया। यमराज ने उसके अन्तिम समय से एक दिन पूर्व अपने दूतों को उसे लाने हेतु भेजा। दूतों ने क्रोधन को बताया कि कल तुम्हारा अन्तिम समय हैै, हम तुम्हें लेने आये हैं। मृत्यु के डर से क्रोधन अंगिरा ऋषि के आश्रम में पहुँचा। उसने ऋषि से अपनी रक्षा हेत बहुत अनुनय विनय पूर्वक प्रार्थना की। ऋषि को उस पर दया आ गयी। उन्होंने उससे आश्विन शुक्ल की एकादशी का व्रत तथा भगवान विष्णु के पूजन का विधान बताया। संयोग से उस दिन एकादशी ही थी। क्रोधन ने ऋषि द्वारा बताये अनुसार एकादशी का विधिवत व्रत एवं पूजन किया। भगवान की कृपा से वह विष्णु लोक को गया। उधर यमदूत हाथ मलते रह गये।