यह श्लोक भगवद गीता, अध्याय 6, श्लोक 40 से है। यह संस्कृत में लिखा गया है और हिंदी में इसका अनुवाद इस प्रकार है:
श्रीभगवानुवाच |
पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते |
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति || 40 ||
"हे पार्थ! जो व्यक्ति आध्यात्मिक पथ पर चलता है, उसका नाश न तो इस संसार में होता है और न ही परलोक में। हे प्रिय मित्र! जो ईश्वर की प्राप्ति के लिए प्रयास करता है, वह कभी भी बुराई से पराजित नहीं होता।"
इस श्लोक का अर्थ यह है कि भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को आश्वासन देते हैं कि आध्यात्मिक प्रयास कभी व्यर्थ नहीं जाता। ईश्वर-प्राप्ति के लिए किया गया प्रयत्न न केवल वर्तमान जीवन में बल्कि अगले जन्मों में भी फलदायी होता है। शुभ कर्म और धर्म के मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति हमेशा ईश्वर की कृपा में रहता है और बुराई या पतन का शिकार नहीं होता।
श्रीभगवान - भगवान श्रीकृष्ण।
उवाच - बोले।
पार्थ: अर्जुन (कुंती के पुत्र, जिनका दूसरा नाम पार्थ है)।
न - नहीं।
एव - निश्चित रूप से।
इह - इस लोक में (भौतिक संसार में)।
न - नहीं।
अमुत्र - परलोक में (मृत्यु के बाद)।
विनाश - नाश, समाप्ति।
तस्य - उसका।
विद्यते - होता है।
न - नहीं।
हि - निश्चय ही।
कल्याणकृत - कल्याण करने वाला, अच्छे कर्म करने वाला।
कश्चित् - कोई भी।
दुर्गतिं - बुरी गति, पतन।
तात - प्रियजन (अर्जुन के लिए संबोधन)।
गच्छति - प्राप्त करता है।