यह श्लोक भगवद गीता, अध्याय 6, श्लोक 28 से है। यह संस्कृत में लिखा गया है और हिंदी में इसका अनुवाद इस प्रकार है:
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मष: |
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते || 28 ||
"योगी जो अपने मन को हमेशा योग में लगाए रखता है और जो पापरहित है, वह योग की साधना के माध्यम से सहजता से ब्रह्म से संपर्क करता है और इस प्रकार परम आनंद को प्राप्त करता है।"
इस श्लोक में श्रीकृष्ण ने योग की शक्ति को बताया है। उन्होंने कहा है कि जो साधक अपने मन को नियंत्रित कर लेता है और ध्यान के माध्यम से ब्रह्म के साथ संबंध स्थापित करता है, वह इस संसार के सुख-दुख से ऊपर उठकर परम आनंद की अवस्था को प्राप्त करता है। यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि ध्यान और योग की साधना के माध्यम से हम अपने जीवन में शांति और आनंद का अनुभव कर सकते हैं।
युञ्जन् - जोड़ता हुआ, ध्यान में स्थित, योग का अभ्यास करने वाला।
एवं - इस प्रकार।
सदात्मानं - सदा आत्मा में स्थित।
योगी - योग का अभ्यास करने वाला।
विगतकल्मषः - पापरहित, दोष रहित।
सुखेन - सहजता से, सुखपूर्वक।
ब्रह्मसंस्पर्शम् - ब्रह्म से संपर्क।
अत्यन्तं - अत्यधिक, परम रूप से।
सुखम् - सुख, आनंद।
अश्नुते - प्राप्त करता है।