यह श्लोक भगवद गीता, अध्याय 6, श्लोक 39 से है। यह संस्कृत में लिखा गया है और हिंदी में इसका अनुवाद इस प्रकार है:
एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषत: |
त्वदन्य: संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते || 39 ||
अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से कहते हैं कि, "हे कृष्ण, मेरे इस दुविधाओं और असमंजस को आप संपूर्ण रूप से दूर करने की कृपा करें। आपके सिवा और कोई इस दुविधाओं और असमंजस का समाधान करने में सक्षम नहीं है।"
यह श्लोक केवल अर्जुन और श्रीकृष्ण के बीच का संवाद नहीं है, बल्कि यह हम सभी के जीवन का एक प्रतिबिंब है। जब भी जीवन में दुविधाओं और असमंजस हो, तो ईश्वर, धर्म और आत्मज्ञान की ओर लौटें। इस स्थिति में, केवल ज्ञानवान और सर्वज्ञ व्यक्ति ही सही मार्ग दिखा सकते हैं। अर्जुन के लिए यह व्यक्ति भगवान श्रीकृष्ण हैं, जो न केवल उनके मार्गदर्शक हैं बल्कि सृष्टि के आधार भी हैं। यही गीता का संदेश और इस श्लोक का विस्तार है।
एतत् (एतं) - यह (यह संशय)।
मे - मेरा (अर्जुन का)।
संशयम् - शंका, दुविधा।
कृष्ण - हे कृष्ण (भगवान श्रीकृष्ण के प्रति संबोधन)।
छेत्तुम् - समाप्त करने के लिए, नष्ट करने के लिए।
अर्हसि - आप योग्य हैं, आप सक्षम हैं।
अशेषत: - पूरी तरह से, बिना किसी शेष के।
त्वत्-अन्य - आपके अलावा, आपसे अलग।
संशयस्य - इस संशय का, इस शंका का।
अस्य - इसका।
छेत्ता - समाप्त करने वाला, हल करने वाला।
न - नहीं।
हि - निश्चय ही।
उपपद्यते - उपयुक्त है, संभव है।