प्रकीर्णस्तोत्राणि
प्रात: स्मरामिह्रदि संस्फुरदात्मतत्त्वं सच्चित्सुखं परमहंसगतिं तुरीयम् ।
यत्स्वप्नजागरसुषुप्तिमवैति नित्यं तद्ब्रह्म निष्कलमहं न च भूतसंघ ।।1।।
प्रातर्भजामि मनसा वचसामगम्यं वाचो विभान्ति निखिला यदनुग्रहेण ।
यन्नेतिनेतिवचनैर्निगमा अवोचंस्तं देवदेवमजमच्युतमाहुरग्रयम् ।।2।।
प्रातर्नमामि तमस: परमर्कवर्णं पूर्णं सनातनपदं पुरुषोत्तमाख्यम् ।
यस्मिन्निदं जगदशेषमशेषमूर्तौ रज्ज्वां भुजंगम इव प्रतिभासितं वै ।।3।।
श्लोकत्रयमिदं पुण्यं लोकत्रयविभूषणम् ।
प्रात: काले पठेद्यस्तु स गच्छेत्परमं पद्म ।।4।।
प्रात: स्मरामि भवभीतिमहार्तिशान्त्यै नारायणं गरुडवाहनमब्जनाभम् ।
ग्राहाभिभूतवरवारणमुक्तिहेतुं चक्रायुधं तरुणवारिजपत्रनेत्रम् ।।1।।
प्रातर्नमामि मनसा वचसा च मूर्ध्ना पादारविन्दयुगलं परमस्य पुंस: ।
नारायणस्य नरकार्णवतारणस्य पारायणप्रवणविप्रपरायणस्य ।।2।।
प्रातर्भजामि भजतामभयंकरं तं प्राक्सर्वजन्मकृतपापभयापहत्यै ।
यो ग्राहवक्त्रपतितांगघ्रिगजेन्द्रघोरशोकप्रणाशनकरो धृतशंखचक्र: ।।3।।
प्रात: स्मरामि रघुनाथमुखारविन्दं मन्दस्मितं मधुरभाषि विशालभालम् ।
कर्णावलम्बिचलकुण्डलशोभिगंडं कर्णान्तदीर्घनयनं नयनाभिरामम् ।।1।।
प्रातर्भजामि रघुनाथकरारविन्दं रक्षोगणाय भयदं वरदं निजेभ्य: ।
यद्राजसंसदि विभज्य महेशचापं सीताकरग्रहणमंगलमाप सद्य: ।।2।।
प्रातर्नमामि रघुनाथपदारविन्दं वज्रांकुशादिशुभरेखि सुखावहं मे ।
योगीन्द्रमानसमधुव्रतसेव्यमानं शापापहं सपदि गौतमधर्मपत्न्या: ।।3।।
प्रातर्वदामि वचसा रघुनाथनाम वाग्दोषहारि सकलं शमलं निहन्ति ।
यत्पार्वती स्वपतिना सह भोक्तुकामा प्रीत्या सहस्त्रहरिनामसमं जजाप ।।4।।
प्रात: श्रये श्रुतिनुतां रघुनाथमूर्तिं नीलाम्बुजोत्पलसितेतररत्ननीलाम् ।
आमुक्तमौक्तिकविशेषविभूषणाढयां ध्येयां समस्तमुनिभिर्जनमुक्तिहेतुम् ।।5।।
य: श्लोकपंचकमिदं प्रयत: पठेद्धि नित्यं प्रभातसमये पुरुष: प्रबुद्ध: ।
श्रीरामकिंकरजनेषु स एव मुख्यो भूत्वा प्रयाति हरिलोकमनन्यलभ्यम् ।।6।।
प्रात: स्मरामि भवभीतिहरं सुरेशं गंगाधरं वृषभवाहनमम्बिकेशम् ।
खट्वांगशूलवरदाभयहस्तमीशं संसाररोगहरमौषधमद्वितीयम् ।।1।।
प्रातर्नमामि गिरिशं गिरजार्द्धदेहं सर्गस्थितिप्रलयकारणमादिदेवम् ।
विश्वेश्वरं विजितविश्वमनोऽभिरामं संसाररोगहरमौषधमद्वितीयम् ।।2।।
प्रातर्भजामि शिवमेकमनन्तमाद्यं वेदान्तवेद्यमनघं पुरुषं महान्तम् ।
नामादिभेदरहितं षड्भावशून्यं संसाररोगहरमौषधमद्वितीयम् ।।3।।
प्रात: समुत्थाय शिवं विचिन्त्य श्लोकत्रयं येऽनुदिनं पठन्ति ।
ते दुःखजातं बहुजन्मसञ्चितं हित्वा पदं यान्ति तदेव शम्भोः ।।4।।
चाञ्चल्यारुणलोचनाञ्चितकृपां चन्द्रार्कचूडामणिं
चारुस्मेरमुखां चराचरजगत्संरक्षणीं सत्पदाम् ।
चञचच्चकनासिकाग्रविलसन्मुक्तामणीरञ्जितां
श्रीशैलस्थलवासिनीं भवतीं श्रीमातरं भावये ।।1।।
कस्तूरीतिलकाञ्चितेन्दुविलसत्प्रोद्भासिभालस्थलीं
कर्पूरद्रवमिश्रचूर्णखदिरामोदोल्लसद्वीटिकाम् ।
लोलापांगतरंगितैरधिकृपासारैर्नतानन्दिनीं
श्रीशैलस्थलवासिनीं भगवतीं श्रीमातरं भावये ।।2।।
प्रात: स्मरामि गणनाथमनाथबन्धुं सिंदूरपूरपरिशोभितगंडयुग्मम् ।
उद्दण्डविघ्नपरिखण्डनचंडदण्डमाखण्डलादिसुरनायकवृन्दवन्द्दम् ।।1।।
प्रातर्नमामि चतुराननवन्द्दमानमिच्छानुकूलमखिलं च वरं ददानम् ।
तं तुन्दिलं द्विरसनाधिपयज्ञसूत्रं पुत्रं विलासचतुरं शिवयो: शिवाय ।।2।।
प्रातर्भजाम्यभयदं खलु भक्तशोकदावानलं गणविभुं वरकुञ्जरास्यम् ।
अज्ञानकाननविनाशनहव्यवाहमुत्साहवर्धनमहं सुतमीश्वरस्य ।।3।।
श्लोकत्रयमिदं पुण्यं सदा साम्राज्यदायकम् ।
प्रातरुत्थाय सततं य: पठेत्प्रयत: पुमान् ।।4।।
प्रात: स्मरामि खलु तत्सवितुर्वरेण्यं रूपं हि मण्डलमृचोऽथ तनुर्यजूंषि ।
सामानि यस्य किरणा: प्रभवादिहेतुं ब्रह्माहरात्मकमलक्ष्यमचिन्त्यरूपम् ।।1।।
प्रातर्नमामि तरणिं तनुवांगमनोभिर्ब्रहोंद्रपूर्वकसुरैर्नुतमर्चितं च ।
वृष्टिप्रमोचन विनिग्रहहेतुभूतं त्रैलोक्यपालनपरं त्रिगुणात्मक च ।।2।।
प्रातर्भजामि सवितारमनन्तशक्ंति पापौघशत्रुभयरोगहरं परं च ।
तं सर्वलोककलनात्मककालमूर्तिं गोकण्ठबन्धनविमोचनमादिदेवम् ।।3।।
श्लोकत्रयमिदं भानो: प्रात:काले पठेत्तु य: ।
स सर्वव्याधिनिर्मुक्त: परं सुखमवाप्नुयात् ।।4।।
प्रहलादनारदपराशरपुण्डरीकव्यासाम्बरीषशुकशौनकभीष्मदाल्भ्यान् ।
रुक्मांडदार्जुनवसिष्ठविभीषणादीन् पुण्यानिमान् परमभागवतान् स्मरामि ।।1।।
वाल्मीकि: सनक: सनन्दनतरुव्र्यासो वसिष्ठो भृगुर्जाबालिर्जमदग्निकच्छजनको गर्गोऽगिंरा गौतम: ।
मान्धाता ऋतुपर्णवैन्यसगरा धन्यो दिलीपो नल: पुण्यो धर्मसुतो ययातिनहुषौ कुर्वन्तु नो मंगलम् ।।2।।
श्री आदि शंकराचार्य द्वारा रचित प्रातः स्मरणम, एक पवित्र प्रार्थना है जिसमें तीन श्लोक हैं जिनका उद्देश्य व्यक्ति के मन (मानस), वाणी (वाक), और शरीर (काया) को सर्वोच्च आत्मा को समर्पित करना है।
प्रत्येक दिन के पहले विचार, शब्द और कार्य किसी व्यक्ति के जीवन पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालते हैं। जब उन्हें पवित्र किया जाता है और दिव्यता से भर दिया जाता है, तो वे आध्यात्मिक ज्ञान की ओर मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं। यह भोर की प्रार्थना गहरा महत्व रखती है क्योंकि यह बाहरी भोर और आंतरिक जागृति दोनों का प्रतीक है। जो लोग हर सुबह छंदों की इस पवित्र तिकड़ी का पाठ करते हैं, जिसे तीनों लोकों के लिए श्रंगार माना जाता है, वे अंततः मुक्ति की उच्चतम अवस्था प्राप्त करेंगे।
प्रातः स्मरणम के छंदों के भीतर, शंकराचार्य अद्वैत-वेदांत के सार को समाहित करते हैं। परम वास्तविकता सच्चिदानंद है, जो अस्तित्व-चेतना-आनंद को दर्शाता है। यह वास्तव में सत्य है, जो अनुभव की तीन अवस्थाओं से परे है और उनसे परे विद्यमान है। हालाँकि, इन अभिव्यक्तियों की शाब्दिक व्याख्या वास्तविकता के निश्चित विवरण के रूप में नहीं की जानी चाहिए। इसलिए, ब्रह्म को नकार के माध्यम से इंगित किया जाता है, इस बात पर जोर देते हुए कि वह "नहीं" है। ब्राह्मण मानवीय अवधारणाओं और शब्दों की सीमाओं से परे, वर्गीकरण के लिए मायावी बना हुआ है। तथाकथित व्यक्तिगत आत्मा ब्रह्म से भिन्न नहीं है और इसे शरीर-मन की जटिलता के साथ भ्रमित नहीं किया जाना चाहिए।
वे तत्व जो दुनिया का निर्माण करते हैं वे मौलिक वास्तविकता के कैनवास पर रस्सी पर डाली गई छाया या माला के समान मात्र भ्रामक अभिव्यक्तियाँ हैं। जैसे ही ज्ञान का सूर्य उगता है, ये भ्रम दूर हो जाते हैं और जीवन का अंतिम लक्ष्य साकार हो जाता है। प्रातः स्मरणम्, तीनों लोकों के आभूषण के रूप में सुशोभित छंदों की यह मेधावी त्रयी, उन लोगों का मार्गदर्शन करती है जो भोर में इसका पाठ करते हैं और उन्हें सर्वोच्च गंतव्य की ओर ले जाते हैं।
प्रातः स्मरणम् वेदांतिक प्रार्थना एक प्रस्तावना के रूप में कार्य करती है, जो प्रार्थना के इच्छित फल की एक झलक प्रदान करती है। यह किसी के विचारों, शब्दों और कार्यों को पवित्र करने के उद्देश्य की प्रशंसा करता है, जिससे अंततः अंतिम आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति होती है।