भीष्म अष्टमी का हिंदू धर्म विशेष महत्व रखता है इस दिन को हिन्दू धर्म में एक त्योहार तरह मनाया जाता है। माघ मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को भीष्म अष्टमी कहा जाता है। यह दिन जनवरी व फरवरी महीनें के दौरान आता है। यह वह दिन जो भारतीय महाकाव्य महाभारत के भीष्म को समर्पित है। भीष्म को ‘गंगा पुत्र भीष्म’ या ‘भीष्म पितामह’ के नाम से जाने जाते थे परन्तु भीष्म को मूल नाम ‘देवव्रत’ था। भीष्म, महाराजा शान्तनु के पुत्र थे और उनकी मां गंगा थी, इसलिए भीष्म को ‘गंगा पुत्र’ के नाम से जाना जाता है।
महाराजा शान्तनु ने अपने पुत्र भीष्म को यह वरदान दिया था, कि वह अपने मृत्यु का दिन स्वयं चुन सकते है। भीष्म ने यह प्रतिज्ञा ली थी, कि वह कभी शादी नहीं करेगें और अपने पिता का सिंहासन के प्रति वफादार रहेंगे।
हिन्दू मास के माघ शुक्ल पक्ष की अष्टमी के दिन भीष्म ने अपने शरीर का त्याग किया था। यह वह दिन था, जिसे देवों का दिन कहा जाता है। भीष्म पितामह ने उत्तरायण के शुभ दिन पर अपना शरीर छोड़ दिया, अर्थात जिस दिन भगवान सूर्य दक्षिणायन की छह महीने की अवधि पूरी करने के बाद उत्तर की ओर बढ़ने लगे। ऐसा माना जाता है कि उत्तरायण के दौरान यदि कोई व्यक्ति मर जाता है तो वह स्वर्ग जाता है।
माघ शुक्ल अष्टमी के दौरान भीष्म पितामह की मृत्यु की वर्षगांठ मनाई जाती है। इसलिए दिन को ‘भीष्म अष्टमी’ कहा जाता है, और निर्विवाद रूप से भीष्म पितामह की पुण्यतिथि के रूप में जाना जाता है। उस दिन से जुड़ी किंवदंती के अनुसार, भीष्म ने अपना शरीर छोड़ने से पहले 58 दिनों तक प्रतीक्षा की थी।
वैयाघ्रपदगोत्राय सांकृत्यप्रवराय च।
गंगापुत्राय भीष्माय सर्वदा ब्रह्मचारिणे।।
भीष्म: शान्तनवो वीर: सत्यवादी जितेन्द्रिय:।
आभिरभिद्रवाप्नोतु पुत्रपौत्रोचितां क्रियाम्।।
यह वह दिन था, जिसे देवों का दिन कहा जाता है। भीष्म पितामह ने उत्तरायण के शुभ दिन पर अपना शरीर छोड़ दिया, अर्थात जिस दिन भगवान सूर्य दक्षिणायन की छह महीने की अवधि पूरी करने के बाद उत्तर की ओर बढ़ने लगे।
भीष्म का मूल नाम 'देवव्रत' था और उन्हें गंगापुत्र भीष्म भी कहा जाता था।