

हाड़ जलै ज्यूं लाकड़ी, केस जलै ज्यूं घास।
सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास।
अर्थ: यह नश्वर मानव देह अंत समय में लकड़ी की तरह जलती है और केश घास की तरह जल उठते हैं। सम्पूर्ण शरीर को इस तरह जलता देख, इस अंत पर कबीर का मन उदासी से भर जाता है।
कबीरदास जी की उदासी किसी आम इंसान की भावुकता नहीं है, बल्कि एक जगी हुई आत्मा की करुणा है। वे इस सच्चाई को जानते थे कि यह शरीर नश्वर है, लेकिन लोग फिर भी इसको ही सबकुछ मान बैठे हैं।
मृत्यु के बाद यह शरीर कुछ भी नहीं रह जाता — न शोभा, न सुगंध, न पहचान। फिर भी जीवित रहते समय हम इसी शरीर के लिए काम करते रहते हैं, छल-कपट करते हैं, दूसरों को दुख देते हैं।
इस दोहे के ज़रिए कबीरदास जी हमें एक बहुत बड़ा सबक देना चाहते हैं —
जागो! जब तक यह शरीर है, कुछ ऐसा कर जाओ जिससे आत्मा का कल्याण हो।
भौतिक चीज़ें खत्म हो जाएंगी।
रूप, सौंदर्य, धन सब राख हो जाएगा।
लेकिन आपके कर्म, आपका प्रेम, आपकी भक्ति — यही आपके साथ जाएगा।
आज जब हम दिखावे, सोशल मीडिया, बाहरी सुंदरता और भौतिक सुख में उलझे हुए हैं, तब यह दोहा हमें आईना दिखाता है।
जो शरीर आज हमें इतना प्यारा लगता है, वही कल चिता पर जल जाएगा।
तो क्यों न अभी से ही आत्मा की ओर रुख करें? क्यों न अपने जीवन को थोड़ी शांति, प्रेम और भक्ति से भर दें?