

यह श्लोक भगवद गीता, अध्याय 7, श्लोक 5 से है। यह संस्कृत में लिखा गया है और हिंदी में इसका अनुवाद इस प्रकार है:
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् |
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ||5||
"हे महाबाहो (अर्जुन)! यह (जड़) प्रकृति अपरा (निम्नतर) है। इससे भिन्न और श्रेष्ठ (परम) मेरी एक और प्रकृति है, जिसे तू जान — जो जीव रूप में है और जिसके द्वारा यह सम्पूर्ण जगत धारण किया जाता है।"
भगवान श्रीकृष्ण यहाँ दो प्रकार की प्रकृति (nature) की बात कर रहे हैं:
भगवान कहते हैं कि "मेरी यह चेतन प्रकृति (जीव रूपी शक्ति) ही इस पूरे संसार को धारण कर रही है।" यानि कि जीव शक्ति ही इस जड़ प्रकृति को गति देती है।