

यह श्लोक भगवद गीता, अध्याय 7, श्लोक 4 से है। यह संस्कृत में लिखा गया है और हिंदी में इसका अनुवाद इस प्रकार है:
भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च |
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ||4||
"भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं —
हे अर्जुन! पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार — ये आठ प्रकार की प्रकृति मेरी ही हैं, और ये भौतिक जगत की मूलभूत शक्तियाँ हैं। इनसे ही यह सारा संसार बना है।"
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में हमें याद दिला रहे हैं कि यह जो संसार हमें दिखाई देता है — उसका हर एक कण, हर तत्व, हर अनुभव... उनकी ही प्रकृति से उत्पन्न हुआ है।
हम सोचते हैं कि हम अपने शरीर के मालिक हैं, अपनी सोच के रचयिता हैं, लेकिन सच यह है कि हम खुद भी उसी ईश्वरीय प्रकृति का हिस्सा हैं।
यहाँ भगवान अपनी "भिन्ना प्रकृति" — यानी आठ प्रकार की प्रकृति का वर्णन कर रहे हैं:
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार।
ये सिर्फ बाहरी संसार को नहीं, बल्कि हमारे भीतर की पूरी व्यवस्था को भी दर्शाते हैं।
शरीर के कण-कण से लेकर मन की हर चाल तक — सब कुछ इसी अष्टधा प्रकृति से बना है।