यह श्लोक भगवद गीता, अध्याय 6, श्लोक 25 से है। यह संस्कृत में लिखा गया है और हिंदी में इसका अनुवाद इस प्रकार है:
शनै: शनैरुपरमेद्बुद्ध्या धृतिगृहीतया |
आत्मसंस्थं मन: कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत् || 25 ||
"इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण योगाभ्यास के महत्व और मानसिक नियंत्रण की विधि का वर्णन कर रहे हैं। वे कहते हैं कि साधक को अपने मन को धीरे-धीरे शांति की ओर लाना चाहिए। यह काम बुद्धि यानी विवेक और धैर्य की सहायता से करना चाहिए। मन को आत्मा में स्थापित करके, किसी भी अन्य विषय के बारे में चिंतन या विचार नहीं करना चाहिए।"
योग और ध्यान में मन का नियंत्रण सबसे महत्वपूर्ण है। मन स्वभाव से चंचल होता है और उसे तुरंत वश में करना कठिन होता है। इसलिए भगवान कृष्ण कहते हैं कि इसे धीरे-धीरे और सतत अभ्यास के द्वारा संयमित किया जाना चाहिए। इसके लिए विवेकपूर्ण निर्णय और धैर्य की आवश्यकता होती है। विवेक के माध्यम से यह समझ आता है कि अस्थिर मन को स्थिर और शांत करने के लिए आत्मा में स्थिर होना जरूरी है।
जब साधक का मन आत्मा में स्थित हो जाता है, तो वह बाहरी विषयों से प्रभावित नहीं होता। इस अवस्था में साधक को किसी प्रकार की चिंता या विचार नहीं करना चाहिए, क्योंकि उसका मन पहले से ही स्थिर और शांत हो चुका होता है। यह अवस्था ध्यान और योग की उच्चतम अवस्था मानी जाती है, जहां साधक संसारिक चिंताओं से मुक्त होकर आत्मा की शांति में स्थिर हो जाता है।
शनै: शनै: - धीरे-धीरे
उपरमेत् - मन को वश में करें, उसे शांति की ओर लाएं
बुद्ध्या - विवेक द्वारा
धृतिगृहीतया - धैर्य से पकड़ी हुई, दृढ़ता से नियंत्रित
आत्मसंस्थं - आत्मा में स्थित
मन: - मन को
कृत्वा - स्थापित करके, रखते हुए
न - नहीं
किञ्चिदपि - किसी भी प्रकार से, कुछ भी
चिन्तयेत् - चिंतन करें, विचार करें