यह श्लोक भगवद गीता, अध्याय 6, श्लोक 22 से है। यह संस्कृत में लिखा गया है और हिंदी में इसका अनुवाद इस प्रकार है:
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं तत: |
यस्मिन्स्थितो न दु:खेन गुरुणापि विचाल्यते || 22||
"भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में कहते हैं कि जब एक साधक योग के अभ्यास के माध्यम से उस परम स्थिति को प्राप्त कर लेता है, तो उसे कोई और लाभ या संसारिक वस्तु उससे श्रेष्ठ नहीं लगती। उस स्थिति में पहुंचने के बाद, चाहे कितना भी बड़ा दुःख क्यों न आ जाए, वह साधक स्थिर रहता है और कष्टों से विचलित नहीं होता।"
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण योग के सर्वोच्च लाभ की चर्चा कर रहे हैं। योग की उच्चतम स्थिति वह है जहां साधक आत्मज्ञान प्राप्त कर लेता है और उसे संसार के अन्य किसी लाभ में रुचि नहीं रहती। वह स्थिति इतनी सुखद और स्थिर होती है कि साधक किसी भी प्रकार के दुःख या संसारिक कष्टों से प्रभावित नहीं होता। यह स्थिति स्थायी आनंद और मानसिक शांति की है, जो केवल योग और ध्यान के माध्यम से प्राप्त की जा सकती है।
यं - जिसे (योग से प्राप्त ज्ञान या स्थिति)
लब्ध्वा - प्राप्त करने के बाद
च - और
अपरं - दूसरा
लाभं - लाभ (सांसारिक सुख या संपत्ति)
मन्यते - समझता है, मानता है
नाधिकं - उससे अधिक नहीं (किसी अन्य लाभ को श्रेष्ठ नहीं मानता)
ततः - उसके बाद
यस्मिन्स्थितः - जिसमें स्थिर रहता है (योग या आत्मज्ञान की स्थिति में)
न - नहीं
दुःखेन - दुःख से
गुरुणा - महान या बड़ा (यहां, किसी बड़े कष्ट या दुःख से)
अपि - भी
विचाल्यते - विचलित नहीं होता