श्री युधिष्ठिरजी बोले कि - हे जनार्दन ! अब आप अधिक (लौंद) माह के कृष्णपक्ष की एकादशी का नाम तथा उसके व्रत की विधि बतलाइये। श्रीकृष्ण बोले कि हे राजन ! इस एकादशी का नाम परमा है। इसके व्रत से समस्त पाप नष्ट होकर इस लोक में तथा परलोक में मुक्ति मिलती है। इसका व्रत पूर्वोक्त विधि से करना चाहिये और भगवान नरोत्तम की धूप, दीप, नैवेद्य, पुष्प आदि से पूजा करनी चाहिये। इस एकादशी के विषय की एक मनोहर कथा जो कि महर्षियों के साथ काम्पिल्य नगरी में हुई थी, कहता हूँ। आप ध्यानपूर्वक श्रवण कीजिए। काम्पिल्य नगर में सुमेधा नाम का एक ब्राह्मण रहता था। इसकी पवित्रा नाम की स्त्री अत्यन्त पवित्र तथा पतिव्रता थी। वह किसी पूर्वजन्म के कारण अत्यंत दरिद्र थी। उसे भिक्षा मांगने पर भी भिक्षा नहीं मिलती थी। वह सदैव वस्त्रों से रहित होते हुए भी अपने. पति की सेवा करती रहती। वह अतिथि को अन्न देकर स्वयं भूखी रहती थी और पति से कभी किसी वस्तु के लिए नहीं कहती थी ।
जब सुमेधा ने अपनी स्त्री को अत्यन्त दुर्बल देखा तो बोला कि- हे प्रिये ! जब मैं धनवानों . से धन मांगता हूं तो वह कुछ मुझे नहीं देते। गृहस्थी केवल धन से चलती है अब मैं क्या करूँ। इसलिए यदि तुम्हारी राय हो तो मैं परदेश में जाकर उद्यम करूँ। इस पर उसकी स्त्री विनीत भाव से बोली कि-पतिदेव ! पति अच्छा या बुरा जो कुछ भी कहे पत्नी को वही करना चाहिए। पूर्वजन्म में जो मनुष्य विद्या और भमिदान करते हैं उन्हें ही इस जन्म में विद्या आर भूमि मिलती है। यदि कोई मनुष्य दान नहीं करता तो भगवान उसे केवल अन्न ही देते हैं। मैं आपका वियोग नहीं सह सकती। पति रहित स्त्री की संसार में माता, पिता, भ्राता, श्वसुर तथा सम्बन्धी आदि निंदा करते हैं, इसलिए आपको इसी स्थान पर रहना चाहिए।
एक समय कौण्डिन्य मुनि उस जगह आये । उनको आते देखकर सुमेधा सहित स्त्री ने प्रणाम किया और बोले-हम आज धन्य हैं। आज हमारा जीवन आपके दर्शन से सफल हुआ। उन्होंने उनको आसन तथा भोजन दिया। भोजन देने के पश्चात पवित्रा बोली कि हे मुनि ! आप मुझे दरिद्रता का नाश करने का उपाय बतलाइये। मैंने अपने पति को परदेश में धन कमाने से जाने से रोका है। मेरे भाग्य से आप आ गए हैं। मुझे पूर्ण निश्चय है कि अब मेरी दरिद्रता शीघ्र ही नष्ट हो जायेगी। अतः आप हमारी दरिद्रता नष्ट करने के लिए किसी व्रत को बतलाइये। इस पर कौण्डिन्य मुनि बोले कि मल मास के कृष्णपक्ष की परमा एकादशी के व्रत से समस्त पाप, दुःख और दरिद्रता आदि नष्ट हो जाते हैं। जो मनुष्य इसका व्रत करता है वह धनवान हो जाता है। इस व्रत में नाच, गाना आदि सहित रात्रि जागरण करना चाहिए कुबेर को महादेव जी ने इसी व्रत के करने से धनाधिपति बना दिया। इसी व्रत के प्रभाव से सत्यवादी हरिश्चन्द्र को पुत्र, स्त्री और राज्य प्राप्त हुआ था। उन मुनि ने उसको एकादशी के व्रत की समस्त विधि कह सुनाई। वह मुनि फिर बोले कि ब्राह्मणजी ! पंचरात्रि व्रत इससे भी अधिक उत्तम है। परमा एकादशी के दिन प्रातः काल नित्यकर्म से निवृत होकर विधिपूर्वक पंचरात्रि व्रत आरम्भ करना चाहिए। जो मनुष्य पाँच दिन तक निर्जल व्रत करते हैं, वे अपने माता-पिता और स्त्री सहित स्वर्गलोक को जाते हैं। जो पांच दिन तक संध्या को भोजन करते हैं, वे स्वर्ग को जाते हैं। जो मनुष्य स्नान करके पांच दिन तक ब्राह्मणों को भोजन कराते हैं, उन्हें समस्त संसार को भोजन कराने का फल मिलता है। इस व्रत में जो घोड़े का दान करते है उन्हें तीनों लोक दान करने का फल मिलता है। जो मनुष्य उत्तम ब्राह्मण को तिल सहित दान करते हैं वे तिल की संख्या के बराबर विष्णु लोक में जाते हैं।
जो पांच दिन तक ब्रह्मचर्यपूर्वक रहते हैं वे देवांगनाओं के साथ स्वर्ग में भोग करते हैं। हे पवित्रे ! तुम अपने पति के साथ इसी व्रत को करो। उससे तुम्हें सिद्धि प्राप्त होगी और अन्त में स्वर्ग को जाओगी। कौण्डिन्य मुनि के कहे अनुसार उन्होंने परमा एकादशी का पांच दिन तक व्रत किया। व्रत समाप्त होने पर उसने देखा कि राजकुमार उसके सामने खड़े हैं । राजकुमार ने एक उत्तम ग्रह जो कि सब वस्तुओं से सजा हुआ था, रहने के लिए दिया। राजकुमार उसको एक ग्राम देकर अपने महल को चले गए। दोनों इस व्रत के प्रभाव से इस लोक में अनन्त सुख भोगकर अन्त में स्वर्गलोक को गए। श्रीकृष्णजी बोले कि हे राजन! जो मनुष्य
परमा एकादशी का व्रत करता है, उसे समस्त तीर्थों, दानों आदि का फल मिलता है। जिस प्रकार संसार में दो पैर वालों में ब्राह्मण, चार पैर वालों में गौ, देवताओं में इन्द्रराज श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार महीनों में अधिक (लौंद) का मास उत्तम है। इस महीने में पंच रात्रि अत्यन्त पुण्य देने वाली है। इस महीने में पद्मिनी और परमा एकादशी भी श्रेष्ठ हैं। उनके व्रत से समस्त पाप क्षीण हो जाते हैं। दुर्बल मनुष्य को एक व्रत जरूर करना चाहिये। जो मनुष्य अधिक मास स्नान तथा एकादशी व्रत नहीं करते, उन्हें आत्मघात का पाप लगता है। यह मनुष्य योनि बड़े पुण्यों से मिलती है। इसलिये मनुष्य को एकादशी का व्रतं अवश्य करना चाहिए।
हे युधिष्ठिर ! जो आपने मुझसे पूछा था सो. मैंने आपको बतला दिया। अब आप इसका व्रत भक्तिपूर्वक कीजिये। जो मनुष्य अधिक मास (लौंद) की परमा एकादशी का व्रत करते हैं वे स्वर्गलोक में जाकर इन्द्र के समान सुखों को भोगते हुए तीनों लोकों में वन्दनीय होते हैं ।
॥ इति एकादशी व्रत माहात्म्य कथा समाप्तम् ॥