दिनमपि रजनी सायं प्रात: शिशिरवसन्तौ पुनरायात: ।
काल: क्रीडति गच्छत्यायुस्तद्पि न मुञ्चत्याशावायु: ।।1।।
भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढ़मते ।
प्राप्ते सन्निहिते मरणे नहि नहि रक्षति डुकृञ् करणे ।। (ध्रुवपद्म)
अग्रे वह्नि: पृष्ठे भानू रात्रौ चिबुकसमर्पितजानु: ।
करतलभिक्षा तरुतलवासस्तद्पि न मुञ्चत्याशापाश: ।भज. ।।2।।
यावद्वित्तोपार्जनसक्तस्तावन्निजपरिवारो रक्त: ।
पश्चाद्धावति जर्जरदेहे वार्तां पृच्छति कोऽपि न गेहे । भज. ।।3।।
जटिलो मुण्डी लुञ्चितकेश: काषायाम्बरबहुकृतवेष: ।
पश्यन्नपि च न पश्यति लोको ह्मुदरनिमित्तं बहुकृतशोक: । भज. ।।4।।
भगवद्गीता किञ्चिदधीता गंगाजललवकणिकापीता ।
सक्रद्पि यस्य मुरारिसमर्चा तस्य यम: किं कुरुते चर्चाम् । भज. ।।5।।
अगं गलितं पलितं मुण्डं दशनविहीनं जातं तुंडम् ।
वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुञ्चत्याशा पिण्डम् । भज. ।।6।।
बालस्तावत्क्रीडा सक्तस्तरुणस्तावत्तरुणीरक्त: ।
वृद्धस्तावच्चिन्तामग्न: पारे ब्रह्माणि कोऽपि न लग्न: । भज. ।।7।।
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम् ।
इह संसारे खलु दुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे । भज. ।।8।।
पुनरपि रजनी पुनरपि दिवस: पुनरपि पक्ष: पुनरपि मास: ।
पुनरप्ययनं पुनरपि वर्षं तदपि न मुञ्चत्याशामर्षम् । भज. ।।9।।
वयसि गते क: कामविकार: शुष्के नीरे क: कासार: ।
नष्टे द्रव्ये क: परिवारो ज्ञाते तत्वे क: संसार: । भज. ।।10।।
नारीस्तनभरनाभिनिवेशं मिथ्यामायामोहावेशम् ।
एतन्मांसवसादिविकारं मनसि विचारय बारम्बारम् । भज. ।।11।।
कस्त्वं कोऽहं कुत आयात: का मे जननी को मे तात: ।
इति परिभावय सर्वमसारं विश्वं त्यक्त्वा स्वप्नविचारम् । भज. ।।12।।
गेयं गीतानामसहस्त्रं ध्येयं श्रीपतिरूपमजस्त्रम् ।
नेयं सज्जनसंगे चित्तं देयं दीनजनाय च वित्तम् । भज. ।।13।।
यावज्जीवो निवसति देहे कुशलं तावत्प्रच्छति गेहे ।
गतवति वायौ देहापाये भार्या बिभ्यति तस्मिन्काये । भज. ।।14।।
सुखत: क्रियते रामाभोग: पश्चाद्धन्त शरीरे रोग: ।
यद्यपि लोके मरणं शरणं तदपि न मुंचति पापाचरणम् । भज. ।।15।।
रथ्याचर्पटविरचितकंथ: पुण्यापुण्यविवर्जितपन्थ: ।
नाहं न त्वं नायं लोकस्तदपि किमर्थं क्रियते शोक: । भज. ।।16।।
कुरुते गंगासागरगमनं व्रतपरिपालनमथवा दानम् ।
ज्ञानविहीन: सर्वमतेन मुक्तिं न भजति जन्मशतेन । भज. ।।17।।
‘‘चर्पट पंजरिका स्तोत्रम’’ प्रसिद्ध भारतीय दार्शनिक और संत, आदि शंकराचार्य द्वारा रचित एक संस्कृत भजन है। इस स्तोत्र को ‘‘पक्षी के पिंजरे का गीत’’ या ‘‘पागल का भजन’’ के नाम से भी जाना जाता है।
शीर्षक ‘‘चर्पट पंजरिका स्तोत्रम’’ का मोटे तौर पर अनुवाद ‘‘पिंजरे से भागे पक्षी का भजन’’ के रूप में किया जा सकता है। यह रूपक शीर्षक सांसारिक इच्छाओं और आसक्तियों के पिंजरे से मुक्ति (मोक्ष) के लिए व्यक्तिगत आत्मा (जीव) की लालसा का प्रतीक है।
स्तोत्र एक दार्शनिक और भक्तिपूर्ण रचना है जो आदि शंकराचार्य से जुड़े हिंदू दर्शन के गैर-द्वैतवादी स्कूल अद्वैत वेदांत से संबंधित विषयों की बारे में बताता है। यह भौतिक संसार की नश्वरता, सांसारिक गतिविधियों की निरर्थकता और सार्वभौमिक चेतना (ब्राह्मण) के साथ एक होने के रूप में स्वयं (आत्मान) की अंतिम वास्तविकता पर जोर देता है।
चर्पट पंजरिका स्तोत्रम व्यक्तियों को भौतिक संसार के क्षणिक सुखों से अलग होने और आध्यात्मिक ज्ञान और चिंतन के माध्यम से आत्म-प्राप्ति की तलाश करने के लिए प्रोत्साहित करता है। यह जीवन की क्षणिक प्रकृति और आंतरिक शांति और मुक्ति की तलाश के महत्व की याद दिलाता है।
अद्वैत वेदांत दर्शन की गहराई की खोज में रुचि रखने वाले भक्त और विद्वान अक्सर प्रतिबिंब और आध्यात्मिक अभ्यास के साधन के रूप में इस स्तोत्र का अध्ययन और पाठ करते हैं। स्तोत्र के छंद प्रतीकवाद और दर्शन से समृद्ध हैं, जो इसे हिंदू आध्यात्मिकता में एक गहन और श्रद्धेय पाठ बनाता है।