छठ एक प्राचीन हिन्दू वैदिक त्योहार है जो ऐतिहासिक रूप से बिहार-झारखंड, छत्तीसगढ और भारत के पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल में सबसे अधिक विस्तृत रूप से मनाया जाता हैै। यह त्योहार मुख्य रूप से बिहार में मनाया जाता है। लेकिन यह उन क्षेत्रों में भी प्रचलित है जहां बिहार-झारखंड के लोगों की उपस्थिति मौजूद है। यह त्योहार भारत में ही नहीं अपितु विदेशों में भी मनाया जाता है। यह त्योहार अब भारत की राजधानी दिल्ली में भी प्रमुख हो गया है। छठ पूजा सूर्य और उनकी पत्नी उषा को समर्पित त्योहार है। सूर्य और उनकी पत्नी को पृथ्वी पर जीवन का उपजों को बहाल करने के लिए धन्यवाद करने के लिए मनाया जाता है।
सूर्य षष्ठी व्रत होने के कारण इसे छठ कहा गया है। यह पर्व वर्ष में दो बार मनाया जाता है। पहली बार चैत्र में और दूसरी बार कार्तिक में। चैत्र शुक्ल पक्ष षष्ठी पर मनाये जाने वाले छठ पर्व को चैत्र छठ व कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी पर मनाये जाने वाले पर्व को कार्तिकी छठ कहा जाता है। छठ पूजा चार दिवसीय उत्सव है। इसकी शुरुआत कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को तथा समाप्ति कार्तिक शुक्ल सप्तमी को होती है। इस दौरान व्रतधारी लगातार 36 घंटे का व्रत रखते हैं। इस दौरान वे पानी भी ग्रहण नहीं करते।
छट पर्व का पहला दिन या ऐसा कहा जा सकता है कि छठ पर्व के शुरू इसी दिन से होती है, इस दिन को ‘नहाय-खाय’ के नाम से जाना जाता है। यह दिन कार्तिक महीने के चतुर्थी कार्तिक शुक्ल चतुर्थी होता है। इस दिन सबसे पहले घर की सफाई कर उसे पवित्र किया जाता है। इस दिन व्रती पूरे दिन में सिर्फ एक बार ही खाना खा सकते है। व्रती इस दिन नाखनू वगैरह को अच्छी तरह काटकर, स्वच्छ जल से अच्छी तरह बालों को धोते हुए स्नान करते हैं। व्रती नजदीक में स्थित गंगा नदी, गंगा की सहायक नदी या तालाब में जाकर स्नान करते है। लौटते समय वो अपने साथ गंगाजल लेकर आते है जिसका उपयोग वे खाना बनाने में करते है । व्रती इस दिन सिर्फ एक बार ही खाना खाते है । खाना में व्रती कद्दू की सब्जी ,मुंग चना दाल, चावल का उपयोग करते है। यह खाना कांसे या मिटटी के बर्तन में पकाया जाता है। खाना पकाने के लिए आम की लकड़ी और मिटटी के चूल्हे का इस्तेमाल किया जाता है। जब खाना बन जाता है तो सर्वप्रथम व्रती खाना खाते है उसके बाद ही परिवार के अन्य सदस्य खाना खाते है ।
छठ पर्व का दूसरा दिन जिसे खरना या लोहंडा के नाम से जाना जाता है। कार्तिक महीने के पंचमी को मनाया जाता है। इस दिन व्रती पुरे दिन निर्जला उपवास करते है। सूर्यास्त से पहले पानी की एक बूंद तक ग्रहण नहीं करते है। शाम को चावल गुड़ और गन्ने के रस का प्रयोग कर खीर बनाया जाता है। खाना बनाने में नमक और चीनी का प्रयोग नहीं किया जाता है। इन्हीं दो चीजों को पुनः सूर्यदेव को नैवैद्य देकर उसी घर में ‘एकान्त’ करते हैं अर्थात् एकान्त रहकर उसे ग्रहण करते हैं। परिवार के सभी सदस्य उस समय घर से बाहर चले जाते हैं ताकी कोई शोर न हो सके। एकान्त से खाते समय व्रती हेतु किसी तरह की आवाज सुनना पर्व के नियमों के विरुद्ध है।
पुनः व्रती खाकर अपने सभी परिवार जनों एवं मित्रों-रिश्तेदारों को वही ‘खीर-रोटी’ का प्रसाद खिलाते हैं। इस सम्पूर्ण प्रक्रिया को ’खरना’ कहते हैं। चावल का पिठ्ठा व घी लगी रोटी भी प्रसाद के रूप में वितरीत की जाती है। इसके बाद अगले 36 घंटों के लिए व्रती निर्जला व्रत रखते है। मध्य रात्रि को व्रती छठ पूजा के लिए विशेष प्रसाद ठेकुआ बनाती है ।
छठ पर्व का तीसरा दिन जिसे संध्या अर्घ्य के नाम से जाना जाता है। कार्तिक शुक्ल षष्ठी को मनाया जाता है। यह दिन छट पूजा का विशेष दिन होता है। छठ पूजा के लिए विशेष प्रसाद जैसे ठेकुआ बनया जाता है जिसे चावल के लड्डू या कचवनिया भी कहा जाता है। छठ पूजा के लिए एक बांस की बनी हुयी टोकरी जिसे दउरा कहते है, में पूजा के प्रसाद, फल डालकर देवकारी में रख दिया जाता है। पूजा अर्चना करने के बाद शाम को एक नारियल, पांच प्रकार के फल, और पूजा का अन्य सामान लेकर टोकरी में रख दिया जाता है जिसे पुरुष अपने हाथो से उठाकर छठ घाट पर ले जाता है। यह अपवित्र न हो इसलिए इसे सर के ऊपर की तरफ रखते है। छठ घाट की तरफ जाते हुए रास्ते में प्रायः महिलाये छठ का गीत गाते हुए जाती है।
चौथे दिन कार्तिक शुक्ल सप्तमी की सुबह उदियमान सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। सूर्योदय से पहले ही व्रती लोग घाट पर उगते सूर्यदेव की पूजा करते हैं। संध्या अर्घ्य में अर्पित पकवानों को नए पकवानों से प्रतिस्थापित कर दिया जाता है परन्तु कन्द, मूल, फलादि वही रहते हैं। सभी नियम-विधान सांध्य अर्घ्य की तरह ही होते हैं। सिर्फ व्रती लोग इस समय पूरब की ओर मुंहकर पानी में खड़े होते हैं व सूर्योपासना करते हैं। पूजा-अर्चना समाप्तोपरान्त घाट का पूजन होता है। वहाँ उपस्थित लोगों में प्रसाद वितरण करके व्रती घर आ जाते हैं और घर पर भी अपने परिवार आदि को प्रसाद वितरण करते हैं। व्रति घर वापस आकर गाँव के पीपल के पेड़ जिसको ब्रह्म बाबा कहते हैं वहाँ जाकर पूजा करते हैं। पूजा के पश्चात् व्रति कच्चे दूध का शरबत पीकर तथा थोड़ा प्रसाद खाकर व्रत पूर्ण करते हैं जिसे पारण या परना कहते हैं। व्रती लोग खरना दिन से आज तक निर्जला उपवासोपरान्त आज सुबह ही नमकयुक्त भोजन करते हैं।
छठ व्रत के सम्बन्ध में अनेक कथाएँ प्रचलित हैं। उनमें से एक कथा के अनुसार जब पांडव अपना सारा राजपाट जुए में हार गये, तब श्री कृष्ण द्रौपदी को छठ व्रत रखने को कहां। द्रौपती ने व्रत का पूरा किया तब उसकी मनोकामनाएँ पूरी हुईं तथा पांडवों को राजपाट वापस मिला।
एक मान्यता के अनुसार लंका विजय के बाद रामराज्य की स्थापना के दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को भगवान राम और माता सीता ने उपवास किया और सूर्यदेव की आराधना की। सप्तमी को सूर्योदय के समय पुनः अनुष्ठान कर सूर्यदेव से आशीर्वाद प्राप्त किया था।
छठ पर्व को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो षष्ठी तिथि (छठ) को एक विशेष खगोलीय परिवर्तन होता है, इस समय सूर्य की पराबैगनी किरणें पृथ्वी की सतह पर सामान्य से अधिक मात्रा में एकत्र हो जाती हैं इस कारण इसके सम्भावित कुप्रभावों से मानव की यथासम्भव रक्षा करने का सामर्थ्य प्राप्त होता है। छठ पूजा के त्योहार का पालन करने से सूर्य प्रकाश के हानिकारक प्रभाव से जीवों की रक्षा होती है। हिन्दू धर्म में, कुष्ठ रोगों सहित विभिन्न प्रकार के त्वचा रोगों के इलाज के लिए भगवान सूर्य की पूजा की जाती है।