यह श्लोक ईशा उपनिषद से है, और यह आध्यात्मिक दर्शन में त्याग और वैराग्य की अवधारणा के बारे में बताता है। इस श्लोक का अनुवाद और अर्थ इस प्रकार है:
न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः ।
परेण नाकं निहितं गुहायां विभ्राजते तद्यतयो विशन्ति ॥
अनुवाद:
कर्मों से नहीं, संतान से नहीं, धन से नहीं, त्याग से कुछ लोगों ने अमरत्व प्राप्त किया है। जो गुफा (हृदय) में छिपा है और चमकता है, वह मार्ग में प्रवेश करने वाले साधकों द्वारा खोजा जाता है।
अर्थ:
यह श्लोक इस विचार पर जोर देता है कि सच्ची मुक्ति और अमरता भौतिक संपत्ति, धन या बाहरी उपलब्धियों के माध्यम से प्राप्त नहीं की जा सकती है। इसके बजाय, यह आसक्ति और इच्छाओं के त्याग के माध्यम से प्राप्त किया जाता है। श्लोक बताता है कि कुछ आध्यात्मिक साधक सांसारिक मोह-माया को त्यागने और आंतरिक परिवर्तन के लिए प्रयास करने के महत्व को समझते हैं। यह कविता रूपक रूप से उस दिव्य वास्तविकता की भी बात करती है जो हर व्यक्ति के दिल के भीतर छिपी हुई है और जिसे आत्म-साक्षात्कार के मार्ग पर चलने वाले लोग ही महसूस कर सकते हैं।
यह श्लोक व्यक्तियों को जीवन के क्षणभंगुर पहलुओं से खुद को अलग करने और आत्म-खोज और आध्यात्मिक प्राप्ति की आंतरिक यात्रा पर ध्यान केंद्रित करने के लिए प्रोत्साहित करता है। यह त्याग के सार और क्षणिक भौतिक संसार से परे शाश्वत सत्य की खोज पर प्रकाश डालता है।