न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं
नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं
तस्य भासा सर्वमिदं विभाति॥
यह श्लोक ईशा उपनिषद से है, जो प्राचीन भारतीय ग्रंथों का एक हिस्सा है जिसे उपनिषद के नाम से जाना जाता है। यहाँ श्लोक का अर्थ है:
अनुवाद:
“वहां न सूरज चमकता है, न चांद-तारे.
न ही वहां बिजली चमकती है. यह आग कैसे चमक सकती है?
उस दिव्य आत्मा के बाद ही सब कुछ चमकता है।
इसके प्रकाश से यह सब चमकता है।”
अर्थ: न वहाँ सूर्य चमकता है, न चाँद तारे समेत चमकता है, न यह बिजली चमकती है। इस आग का क्या कहें? जो अकेला चमकता है, उसके बाद हर चीज़ चमकती है। उन्हीं के प्रकाश से यह सब भिन्न-भिन्न प्रकार से चमकता है।
श्लोक पूछता है, "नेमा विद्युतो भंन्ति कुतोऽयमग्निः?" - "यह आग कैसे चमक सकती है?" यह हमें प्रकाश की प्रकृति पर विचार करने की चुनौती देता है। यदि तीव्र तेज का प्रतीक बिजली भी दिव्य तेज की तुलना नहीं कर सकती, तो हम उस शाश्वत तेज के वास्तविक सार को कैसे समझ सकते हैं?
श्लोक तब उत्तर प्रदान करता है: "तमेव भन्तमनुभाति सर्वं, तस्य भासा सर्वमिदं विभाति॥" - "उस दिव्य आत्मा के बाद ही सब कुछ चमकता है। उसके प्रकाश से, यह सब चमकता है।" उपनिषद से पता चलता है कि सभी प्रकाश और चमक का स्रोत दिव्य आत्मा है, परम वास्तविकता जो हर चीज में व्याप्त है। यह शाश्वत तेज न केवल बाहरी जगत को बल्कि चेतना के आंतरिक क्षेत्र को भी प्रकाशित करता है।
यह श्लोक इस विचार को दर्शाता है कि परम वास्तविकता, जिसे अक्सर "दिव्य स्व" कहा जाता है, सभी रोशनी और अस्तित्व का स्रोत है। यह सुझाव देता है कि सूर्य, चंद्रमा और अग्नि जैसे प्रकाश के सांसारिक स्रोत अस्थायी और सीमित हैं, जबकि प्रकाश का सच्चा स्रोत शाश्वत और अनंत दिव्य उपस्थिति है। यह कविता भौतिक संसार से परे परम वास्तविकता पर चिंतन को प्रोत्साहित करती है।