शरद पूर्णिमा हिन्दू धर्म में सबसे महत्वपूर्ण व प्रसिद्ध पूर्णिमा है। आश्विन मास की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा कहते हैं। शरद पूर्णिमा को बृज क्षेत्र में रास पूर्णिमा कहा जाता है और गुजरात में शरद पूनम कहा जाता है। ज्योतिष की मान्यता है, कि सम्पूर्ण वर्ष में आश्विन मास की पूर्णिमा का चन्द्रमा ही सोलह कलाओं का होता है। ऐसा कहा जाता हैं कि इस दिन चन्द्रमा अमृत की वर्षा करता है।
शरद पूर्णिमा के दिन शाम को खीर, पूरी बनाकर भगवान को भोग लगाएँ। भोग लगाकर खीर को छत पर रख दें और रात को भगवान का भजन करें। चाँद की रोशनी में सुई पिरोएँ। अगले दिन खीर का प्रसाद सबको देना चाहिए।
इस दिन प्रातःकाल आराध्य देव को सुन्दर वस्त्राभूषणों से सुशोभित करें। आसन पर विराजमान कर गंध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, ताम्बूल, सुपारी, दक्षिणा आदि से पूजा करनी चाहिए।
पूर्णिमा का व्रत करके कहानी सुननी चाहिए। कथा सुनते समय एक लोटे मे ंजल, गिलास में गेहूँ, दौनों में रोली तथा चावल रखें। गेहूँ के 13 दाने हाथ में लेकर कथा सुनें। फिर गेहूँ के गिलास पर हाथ फेर कर मिश्राणी के पाँव स्पर्श करके गिलास उसे दे दें। लोटे के जल का रात को अध्र्य दें।
नवविवाहित महिलाएं, जो वर्ष के लिए पूर्णिमासी उपवास करने का संकल्प लेती हैं, वे शरद पूर्णिमा के दिन से उपवास शुरू करती हैं।
कई क्षेत्रों में शरद पूर्णिमा को कोजागरा पूर्णिमा के रूप में जाना जाता है, जब कोजागरा व्रत पूरे दिन मनाया जाता है। कोजागरा व्रत को कौमुदी व्रत के नाम से भी जाना जाता है।
बृज क्षेत्र में, शरद पूर्णिमा को रास पूर्णिमा (रस पूर्णिमा) के रूप में भी जाना जाता है। ऐसा माना जाता है कि शरद पूर्णिमा के दिन भगवान कृष्ण ने दिव्य प्रेम का नृत्य महा-रास किया था। शरद पूर्णिमा की रात, कृष्ण की बांसुरी का दिव्य संगीत सुनकर, वृंदावन की गोपियाँ अपने घरों और परिवारों से दूर रात भर कृष्ण के साथ नृत्य करने के लिए जंगल में चली गईं। यह वह दिन था जब भगवान कृष्ण ने प्रत्येक गोपी के साथ कई कृष्ण बनाए। ऐसा माना जाता है कि भगवान कृष्ण ने अलौकिक रूप से रात को भगवान ब्रह्मा की एक रात की लंबाई तक बढ़ाया जो कि अरबों मानव वर्षों के बराबर थी।
एक साहूकार के दो पुत्रियाँ थी। दोनों पुत्रियाँ पूर्णिमा का व्रत रखती थीं। परन्तु बड़ी पुत्री पूर्णिमा का पूरा व्रत करती थी और छोटी पुत्री अधूरा व्रत करती थी। परिणाम यह हुआ कि छोटी पुत्री की सन्तान पैदा होते ही मर जाती थी। उसने पंडितों से इसका कारण पूछा तो उन्होंने उसे बताया कि तुम पूर्णिमा का अधूरा व्रत करती हो जिसके कारण तुम्हारी सन्तान पैदा होते ही मर जाती हैं। पूर्णिमा का पूरा व्रत विधिपूर्वक करने से तुम्हारी सन्तान जीवित रह सकती है।
उसने पंडितों की सलाह पर पूर्णिमा का पूरा व्रत विधिपूर्वक किया। उसके लड़का हुआ परन्तु शीघ्र ही मर गया। उसने लड़के को पीढ़े पर लिटाकर ऊपर से कपड़ा ढक दिया। फिर बड़ी बहन को बुलाकर लाई और बैठने के लिए वही पीढ़ा दे दिया। बड़ी बहन जब पीढ़े पर बैठने लगी तो उसका घाघरा बच्चे को छू गया। बच्चा घाघरा छूते ही रोने लगा। बड़ी बहन बोली - ‘तु मुझे कलंक लगाना चाहती थी। मेरे बैठने से यह मर जाता।’ तब छोटी बहन बोली, ‘यह तो पहले ही मरा हुआ था। तेरे ही भाग्य से यह जीवित हो गया है। तेरे पुण्य से ही यह जीवित हुआ है।’
उसके बाद नगर में उसने पूर्णिमा का पूरा व्रत करने का ढिंढोरा पिटवा दिया।