आश्रम प्राचीन और मध्यकालीन युगों के हिंदू ग्रंथों में चर्चित जीवन के चरणों की एक प्रणाली है। चार आश्रम हैं: ब्रह्मचर्य (छात्र), गृहस्थ (गृहस्थ), वानप्रस्थ (वन में रहने वाला/वनवासी), और संन्यास (त्यागी)। आश्रम प्रणाली हिंदू धर्म में धर्म अवधारणा का एक पहलू है। यह भारतीय दर्शन में नैतिक सिद्धांतों का एक घटक भी है, जहाँ इसे मानव जीवन के चार उचित लक्ष्यों (पुरुषार्थ) के साथ जोड़ा जाता है, जो पूर्णता, खुशी और आध्यात्मिक मुक्ति के लिए हैं। इसके अलावा, चूँकि चार आश्रमों को एक प्रभावशाली जीवन-अवधि मॉडल के ढाँचे के रूप में देखा जा सकता है, वे एक स्वदेशी विकासात्मक मनोविज्ञान का भी हिस्सा हैं, जिसने अपनी प्राचीन शुरुआत से लेकर आज तक कई लोगों के उन्मुखीकरण और लक्ष्यों को आकार दिया है, खासकर भारत में।
ब्रह्मचर्य आश्रम जीवन का पहला चरण है, जो शिक्षा और आत्म-अनुशासन पर केंद्रित है। इस चरण में व्यक्ति गुरु के सान्निध्य में रहकर वेदों और शास्त्रों का अध्ययन करता है। ब्रह्मचर्य आश्रम में शिक्षा और शारीरिक, मानसिक, और आध्यात्मिक विकास पर जोर दिया जाता है। यह चरण व्यक्ति को जीवन के अन्य आश्रमों के लिए तैयार करता है और उसे संयम, अनुशासन और ज्ञान प्राप्ति की दिशा में मार्गदर्शन करता है।
गृहस्थ आश्रम जीवन का दूसरा चरण है, जिसमें व्यक्ति विवाह करता है और परिवार का पालन-पोषण करता है। इस चरण में व्यक्ति सामाजिक और आर्थिक जिम्मेदारियों को निभाता है। गृहस्थ आश्रम में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के सिद्धांतों का पालन किया जाता है। यह चरण जीवन की स्थिरता और समाज की उन्नति के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है। गृहस्थ व्यक्ति अपने परिवार और समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करता है और धार्मिक और सामाजिक गतिविधियों में भाग लेता है।
वानप्रस्थ आश्रम जीवन का तीसरा चरण है, जिसमें व्यक्ति धीरे-धीरे सांसारिक जीवन से निवृत्ति प्राप्त करता है। इस चरण में व्यक्ति अपने परिवार की जिम्मेदारियों को अपने बच्चों को सौंप देता है और जंगल में जाकर साधना और ध्यान करता है। वानप्रस्थ आश्रम में आत्मचिंतन, साधना और धार्मिक गतिविधियों पर जोर दिया जाता है। इस चरण में व्यक्ति अपनी आत्मा की खोज में संलग्न होता है और अपने जीवन के लक्ष्य की ओर अग्रसर होता है।
संन्यास आश्रम जीवन का अंतिम चरण है, जिसमें व्यक्ति सम्पूर्ण रूप से सांसारिक जीवन का त्याग करता है और मोक्ष की प्राप्ति के लिए साधना करता है। इस चरण में व्यक्ति संन्यास धारण करता है और केवल भगवान की आराधना में लीन रहता है। संन्यास आश्रम में व्यक्ति सभी प्रकार के भौतिक सुख-सुविधाओं का त्याग करता है और अपने जीवन को धर्म और आध्यात्मिकता के प्रति समर्पित करता है। यह चरण व्यक्ति को आत्मज्ञान और मुक्ति की ओर ले जाता है।
चार आश्रम जीवन के विभिन्न चरणों में व्यक्ति की भूमिका और कर्तव्यों को स्पष्ट रूप से परिभाषित करते हैं। ये आश्रम व्यक्ति को एक संतुलित और उद्देश्यपूर्ण जीवन जीने की दिशा में मार्गदर्शन करते हैं। हिंदू धर्म में इन चार आश्रमों का पालन व्यक्ति को आत्मविकास, सामाजिक सेवा और अंततः मोक्ष की प्राप्ति की ओर ले जाता है। जीवन के इन चार चरणों का समग्र उद्देश्य व्यक्ति को एक संपूर्ण और संतुलित जीवन जीने में सहायता करना है।