ॐ प्रातर्वा स्यात कुमारी कुसुम-कलिकया जप-मालां जपन्ती।
मध्यान्हे प्रौढ-रुपा विकसित-वदना चारु-नेत्रा निशायाम।।
सन्ध्यायां ब्रिद्ध-रुपा गलीत-कुच-युगा मुण्ड-मालां वहन्ती।
सा देवी देव-देवी त्रिभुवन-जननी चण्डिका पातु युष्मान ।।1।।
बद्ध्वा खट्वाङ्ग कोटौ कपिल दर जटा मण्डलं पद्म योने:।
कृत्वा दैत्योत्तमाङ्गै: स्रजमुरसी शिर: शेखरं ताक्ष्र्य पक्षै: ।।
पूर्ण रक्त्तै: सुराणां यम महिष-महा-श्रिङ्गमादाय पाणौ।
पायाद वौ वन्ध मान: प्रलय मुदितया भैरव: काल रात्र्या ।।2।।
चर्वन्ती ग्रन्थी खण्ड प्रकट कट कटा शब्द संघातमुग्रम।
कुर्वाणा प्रेत मध्ये ककह कह हास्यमुग्रं कृशाङ्गी।।
नित्यं न्रीत्यं प्रमत्ता डमरू डिम डिमान स्फारयन्ती मुखाब्जम।
पायान्नश्चण्डिकेयं झझम झम झमा जल्पमाना भ्रमन्ती।।3।।
टण्टट् टण्टट् टण्टटा प्रकट मट मटा नाद घण्टां वहन्ती।
स्फ्रें स्फ्रेंङ्खार कारा टक टकित हसां दन्त सङ्घट्ट भिमा।।
लोलं मुण्डाग्र माला ललह लह लहा लोल लोलोग्र रावम्।
चर्वन्ती चण्ड मुण्डं मट मट मटितं चर्वयन्ती पुनातु।।4।।
वामे कर्णे म्रिगाङ्कं प्रलया परीगतं दक्षिणे सुर्य बिम्बम्।
कण्डे नक्षत्र हारं वर विकट जटा जुटके मुण्ड मालम्।।
स्कन्धे कृत्वोरगेन्द्र ध्वज निकर युतं ब्रह्म कङ्काल भारम्।
संहारे धारयन्ती मम हरतु भयं भद्रदा भद्र काली ।।5।।
तैलोभ्यक्तैक वेणी त्रयु मय विलसत् कर्णिकाक्रान्त कर्णा।
लोहेनैकेन् कृत्वा चरण नलिन कामात्मन: पाद शोभाम्।।
दिग् वासा रासभेन ग्रसती जगादिदं या जवा कर्ण पुरा-
वर्षिण्युर्ध्व प्रब्रिद्धा ध्वज वितत भुजा साSसी देवी त्वमेव।।6।।
संग्रामे हेती कृत्तै: स रुधिर दर्शनैर्यद् भटानां शिरोभी-
र्मालामाबध्य मुर्घ्नी ध्वज वितत भुजा त्वं श्मशाने प्रविष्टा।।
दृंष्ट्वा भुतै: प्रभुतै: प्रिथु जघन घना बद्ध नागेन्द्र कान्ञ्ची-
शुलाग्र व्यग्र हस्ता मधु रुधिर मदा ताम्र नेत्रा निशायाम्।।7।।
दंष्ट्रा रौद्रे मुखे स्मिंस्तव विशती जगद् देवी! सर्व क्षणार्ध्दात्सं
सारस्यान्त काले नर रुधिर वसा सम्प्लवे धुम धुम्रे।।
काली कापालिकी त्वं शव शयन रता योगिनी योग मुद्रा।
रक्त्ता ॠद्धी कुमारी मरण भव हरा त्वं शिवा चण्ड धण्टा।।8।।
ॐ धुमावत्यष्टकं पुण्यं, सर्वापद् विनिवारकम्।
य: पठेत् साधको भक्तया, सिद्धीं विन्दती वंदिताम्।।1।।
महा पदी महा घोरे महा रोगे महा रणे।
शत्रुच्चाटे मारणादौ, जन्तुनां मोहने तथा।।2।।
पठेत् स्तोत्रमिदं देवी! सर्वत्र सिद्धी भाग् भवेत्।
देव दानव गन्धर्व यक्ष राक्षरा पन्नगा: ।।3।।
सिंह व्याघ्रदिका: सर्वे स्तोत्र स्मरण मात्रत:।
दुराद् दुर तरं यान्ती किं पुनर्मानुषादय:।।4।।
स्तोत्रेणानेन देवेशी! किं न सिद्धयती भु तले।
सर्व शान्तीर्भवेद्! चानते निर्वाणतां व्रजेत्।।5।।
देवी धूमावती को समर्पित धूमावती अष्टक स्तोत्र प्रतिकूलताओं को कम करने, बाधाओं पर काबू पाने, बुरे ग्रहों के प्रभाव को दूर करने और गरीबी को कम करने में अपनी क्षमता के कारण हिंदू आध्यात्मिकता में एक विशेष स्थान रखता है। जो भक्त तीन रातों तक अटूट भक्ति के साथ इस पवित्र भजन का पाठ करते हैं, वे अक्सर अपने विरोधियों को शक्तिहीन होते हुए देखते हैं। उनकी किस्मत सकारात्मक मोड़ लेती है, जबकि उनके दुश्मनों का घमंड चूर-चूर हो जाता है। इसके अलावा, इस प्रार्थना के माध्यम से, व्यक्ति को भगवती की कृपा और स्थायी आशीर्वाद प्राप्त होता है, जिससे सौभाग्य सुनिश्चित होता है।
देवी भागवत महापुराण के अनुसार, देवी धूमावती को ब्रह्मांड की निर्माता, संरक्षक और संहारक माना जाता है। उनकी अभिव्यक्तियाँ विभिन्न प्रकार की शक्ति और ज्ञान प्रदान करने की क्षमता के लिए पूजनीय हैं। दस महाविद्याओं में से, धूमावती मृत्यु, भूख, गरीबी, बीमारी और सभी प्रकार की प्रतिकूलताओं का अवतार हैं। प्राणतोशिनी तंत्र की एक दिलचस्प किंवदंती उनकी उत्पत्ति भगवान शिव की पहली पत्नी देवी सती के रूप में बताती है। जब उसने हिमालय पर अपनी भूख व्यक्त की और शिव उसके अनुरोध को पूरा नहीं कर सके, तो हताशा में उसने शिव को खा लिया, इस प्रकार वह स्वयं विधवा हो गई।
महाकाली, तारा, छिन्नमस्ता, भुवनेश्वरी, बगलामुखी, धूमावती, त्रिपुर सुंदरी, मातंगी, षोडशी और त्रिपुर भैरवी सहित दस महाविद्याएँ सामूहिक रूप से भगवती पार्वती की शक्ति के विविध पहलुओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। इन महाविद्याओं में से पांच सात्विक भाव प्रदर्शित करती हैं, जबकि अन्य पांच तामसिक भाव या तंत्रोक्त भाव प्रस्तुत करती हैं। धूमावती महाविद्या अपनी तीव्र, डरावनी और सक्रिय प्रकृति के लिए प्रसिद्ध है। उसे लंबे और कठोर के रूप में चित्रित किया गया है, उसके बिखरे बाल, झुके हुए स्तन और गायब दांत हैं। उसकी शक्ल अपरंपरागत है, जिसमें बड़ी नाक, टेढ़ा शरीर और अस्थिर, विवादास्पद आंखें हैं।