साँझी का त्योहार आश्विन लगते ही पूर्णमासी से अमावस्या तक मनाया जाता है। यह त्योहार मुख्य रूप से राजस्थान, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, पंजाब और गुजरात में मनाया जाता है। गाय के गोबर और फूलों से बनी सांझी तैयार करने की प्रारंभिक परंपरा जिसे वैष्णव मंदिरों द्वारा 15वी व 16वीं शताब्दी में किया गया था, जो अभी भी गांवों में प्रचलित है।
साँझी एक देवी का नाम है, जिसे महिलाएँ घर की दीवार पर गाय के गोबर व मिट्टी से बनाया जाता है। साँझी की मिट्टी की एक प्रतिमा बनाई जाती है जिसमें अलग-अगल रंग, हार, चूङियां, फूल पत्तों, मालीपन्ना सिन्दूर व रंग बिरंगे कपड़ों आदि से सजाया जाता है।
छवि दुर्गा पूजा या नवरात्रि के नौ दिनों के पहले दिन बनाई गई है। हर दिन आस-पड़ोस की महिलाओं को भजन गाने और आरती करने के लिए आमंत्रित किया जाता है। श्याम के समय घी का दीपक जलाकर आरती के जाती है, और लोक गीत प्रसाद विर्तित किया जाता है।
सोंलहवें दिन अमावस्या को साँझी देवी को दीवार से उतारकर मिट्टी के घड़े में बिठाया जाता है। उसके आगे तेल या घी का दिया जलाते हैं। फिर सभी मिलकर साँझी देवी को गीतों के साथ विदा करने जाते हैं। साँझी का त्योहार दशहरे के दिन साँझी देवी के विर्सजन साथ समाप्त होता है। साँझी देवी की प्रतिमा को किसी भी नदी व तालाब में विर्सजन किया जाता है।
आरता ए आरता संझा माई आरता, आरता के फूल चमेली की डाल्ही
नौ नौ नोरते दुरगा माई के, सोलां कनागत पितरां के
जाग सांझी जाग तेरे मात्थे लाग्या भाग, पीली पीली पट्टिआं सदा सुहाग
सांझी ए के ओढैगी के पहरैगी, क्यांहे की मांग भरावैगी
स्यालू ओढूंगी मिसरू पहरूंगी, मोतिआं की मांग भराऊंगी
सूच्चयां का जूड़ा जड़ाऊंगी, धूंधाए कै ओढैगी के पहरेगी
क्यांहे की मांग भरावैगी, क्यांहे का जूड़ा ए जड़ावैगी
गूदड़ औढूंगी खादड़ पहरूंगी, ढेर्यां की मांग भराऊंगी, ल्हीखा का जूड़ा ए जड़ाऊंगी।