अनंत चतुर्दशी 2025

महत्वपूर्ण जानकारी

  • अनंत चतुर्दशी 2025
  • शनिवार, 06 सितंबर 2025
  • चतुर्दशी तिथि प्रारंभ: 06 सितंबर 2025 को सुबह 03:12 बजे
  • चतुर्दशी तिथि समाप्त: 07 सितंबर 2025 को सुबह 01:41 बजे

अनंत चतुर्दशी, जिसे अनंत चतुर्दशी या अनंत पद्मनाभ व्रत के नाम से भी जाना जाता है। हिन्दू धर्म में अनन्त चतुर्दशी भगवान विष्णु के अनन्त रूप की पूजा हेतु सबसे महत्वपूर्ण दिन माना गया है। भाद्रपद्र माह की शुक्ल पक्ष की चतुदर्शी भगवान अनन्त का व्रत रखकर मनायी जाती है। यह शुभ दिन गहरा आध्यात्मिक महत्व रखता है और पूरे भारत और उसके बाहर के हिंदुओं द्वारा भक्ति और उत्साह के साथ मनाया जाता है। इस व्रत के नाम से लक्षित होता है कि यह दिन उस अन्त न होने वाले सृष्टि के कर्ता विष्णु की भक्ति का दिन है। अनन्त चतुदर्शी का दिन हिन्दू और जैन दोनों धर्मो के लिए महत्त्वपूर्ण दिन है। जैन धर्म के लिए यह वह दिन है, जब वर्तमान ब्रह्मांड चक्र के 12वें तीर्थंकर भगवान वासुपूज्य ने निर्वाण प्राप्त किया था। यह मुख्य जैन त्यौहार, पर्यूषण पर्व का आख़री दिन होता है।

अनंत चतुर्दशी का महत्व

अनंत चतुर्दशी प्रेम और भक्ति के शाश्वत बंधन का जश्न मनाती है, जिसका प्रतीक भगवान विष्णु अपने अनंत (अनंत) रूप में हैं। "अनंत" शब्द का अर्थ अंतहीन और असीम है, और यह त्योहार शाश्वत रिश्तों, विशेष रूप से पति-पत्नी के बीच के बंधन की अवधारणा को रेखांकित करता है।

अनुष्ठान और पालन

  • व्रत (उपवास): अनंत चतुर्दशी पर भक्त एक दिन का उपवास रखते हैं। विवाहित महिलाएं अक्सर अपने पतियों की भलाई और दीर्घायु के लिए उपवास करती हैं, जबकि अन्य विभिन्न आशीर्वाद और आध्यात्मिक गुणों के लिए उपवास करती हैं।
  • धागा बांधना: एक पवित्र धागा, जो आमतौर पर रेशम या कपास से बना होता है, भक्तों की कलाई पर बांधा जाता है। इस धागे को "अनंत सूत्र" के नाम से जाना जाता है और यह भगवान विष्णु के शाश्वत बंधन और सुरक्षा का प्रतीक है।
  • पूजा : विशेष प्रार्थनाएं और अनुष्ठान किए जाते हैं, जिसके दौरान भगवान विष्णु की, विशेष रूप से उनके अनंत रूप की, भक्तिपूर्वक पूजा की जाती है। देवता को फूल, धूप, फल और मिठाइयाँ अर्पित की जाती हैं।
  • मंत्रों का जाप: भक्त उनका आशीर्वाद और दिव्य कृपा पाने के लिए भगवान विष्णु को समर्पित मंत्रों का जाप करते हैं, जैसे "अनंत चतुर्दशी मंत्र"।
  • द्वादशी पूजा: यह त्योहार दो दिनों तक चलता है। अनंत चतुर्दशी के अगले दिन को "द्वादशी" के नाम से जाना जाता है। उत्सव के समापन के लिए भक्त इस दिन विशेष अनुष्ठान और प्रार्थना करते हैं।

आध्यात्मिक सार

अनंत चतुर्दशी रिश्तों की शाश्वत प्रकृति, विशेष रूप से पति-पत्नी के बीच प्यार और प्रतिबद्धता के बंधन पर जोर देती है। यह भक्तों को समर्पण, आस्था और परमात्मा की अनंत कृपा में विश्वास के महत्व की याद दिलाता है। यह त्यौहार धैर्य, दृढ़ता और आध्यात्मिक विकास की खोज के गुण भी सिखाता है।

इस दिन अनन्त भगवान की पूजा करके संकटों से रक्षा करने वाला अनन्त सूत्र बांधा जाता है। महाभारत में, महाराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया था। यज्ञ मंडप का निर्माण सुन्दर तो था ही अद्भुत भी था। उसमें स्थल में जल और जल में स्थल की भ्रांति होती थी। यज्ञ मंडप की शोभा निहारते निहारते दुर्योधन एक जगह को स्थल समझकर कुण्ड में जा गिरा। द्रोपदी ने उसका उपहास उड़ाते हुए कहा कि ‘अंधे का पुत्र अंधा’।

यह बात दुर्योधन के हृदय में बाण की तरह चुभ गई। इस बदला दुर्योधन ने द्यूत क्रीड़ा में छल से परास्त कर के लिया और पांडवों को 12 वर्ष का वनवास भोगना पड़ा। तब भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को अपने भाइयों तथा द्रौपदी के साथ अनन्त चतुर्दशी का व्रत करने की सलाह दी थी। धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने भाइयों तथा द्रौपदीके साथ पूरे विधि-विधान से यह व्रत किया तथा अनन्त सूत्र धारण किया। अनन्त चतुर्दशी व्रत के प्रभाव से पाण्डव सब संकटों से मुक्त हो गए।

पूजा विधान

अनन्त एवं नागानामधिपः सर्वकामदः ।
सदा भूयात् प्रसन्नोमे यक्तानाभयंकर।।

अनंन्तसागरमहासमुद्रेमग्नान्समभ्युद्धरवासुदेव।
अनंतरूपेविनियोजितात्माह्यनन्तरूपायनमोनमस्ते॥

मंत्र से पूजा करना चाहिए। यहां भगवान विष्णु, श्रीकृष्ण के में रूप हैं और शेषनाग काल रूप में विद्यमान हैं। अतः दोनों की सम्मिलित पूजा हो जाती है।

स्नान करके कलश की स्थापना की जाती है। कलश पर अष्ट दल कमल के समान बने बर्तन में कुशा से निर्मित अनन्त भगवान की स्थापना की जाती है। उसके समीप 14 गांठ लगाकर हल्दी से रंगे कच्चे डोरे को रखें और गन्ध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य से पूजन करें। तत्पश्चात् अनन्त भगवान का ध्यान कर शुद्ध अनन्त को अपनी दाईं भुजा में बाँधना चाहिए। यह धागा अनन्त फल देने वाला है। अनन्त की चैदह गाँठे लोकों की प्रतीक है। उनमें अनन्त भगवान विद्यमान हैं।

कथा

सत्ययुग में सुमन्तु नाम के एक मुनि थे। उनकी पुत्री सुशीला अपने नाम के अनुरूप अत्यंत सुशील थी। सुमन्तु मुनि ने उस कन्या का विवाह कौण्डिल्य मुनि से किया। कौण्डिल्य मुनि अपनी पत्नी सुशीला को लेकर जब अपने आश्रम लौट रहे थे। रास्ते में रात हो जाने पर वे नदी तट पर संध्या करने लगे। सुशीला ने वहां पर बहुत सी स्त्रियों को किसी देवता की पूजा करते देखा। सुशीला के पूछने पर महिलाओं ने विधि पूर्वक अनन्त व्रत की महत्ता समझा दी।  सुशीला ने अनन्त-व्रत का माहात्म्य जानकर उन स्त्रियों के साथ अनंत भगवान का पूजन करके अनन्त सूत्र बांध लिया। इसके फलस्वरूप थोडे ही दिनों में उसका घर धन-धान्य से पूर्ण हो गया।

एक दिन कौण्डिल्य मुनि की दृष्टि अपनी पत्नी के बाएं हाथ में बंधे अनन्त सूत्र पर पडी, जिसे देखकर वह भ्रमित हो गए और उन्होंने पूछा-क्या तुमने मुझे वश में करने के लिए यह सूत्र बांधा है? शीला ने विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया-जी नहीं, यह अनंत भगवान का पवित्र सूत्र है। परंतु ऐश्वर्य के मद में अंधे हो चुके कौण्डिल्य ने अपनी पत्नी की सही बात को भी गलत समझा और अनन्त सूत्र को जादू-मंतर वाला वशीकरण करने का डोरा समझकर तोड दिया तथा उसे आग में डालकर जला दिया। इस जघन्य कर्म का परिणाम भी शीघ्र ही सामने आ गया। उनकी सारी संपत्ति नष्ट हो गई। दीन-हीन स्थिति में जीवन-यापन करने में विवश हो जाने पर कौण्डिल्य ऋषि ने अपने अपराध का प्रायश्चित करने का निर्णय लिया। वे अनन्त भगवान से क्षमा मांगने हेतु वन में चले गए। उन्हें रास्ते में जो मिलता वे उससे अनन्त देवका पता पूछते जाते थे। बहुत खोजने पर भी कौण्डिल्य मुनि को जब अनन्त भगवान का साक्षात्कार नहीं हुआ, तब वे निराश होकर प्राण त्यागने को उद्यत हुए।

तभी अनन्त दर्शन देकर बोले - ‘हे कौण्डिल्य! तुमने जो अनन्त सूत्र का तिरस्कार किया है, यह सब उसी का फल है। तुम्हारे पश्चाताप के कारण मैं प्रसन्न हूँ। आश्रम जाकर चैदह वर्ष तक विधि विधान पूर्वक अनन्त व्रत करो। तुम्हारे सारे कष्ट दूा हो जायेंगे। कौण्डिल्य मुनि ने चैदह वर्ष तक अनन्त-व्रत का नियम पूर्वक पालन करके खोई हुई समृद्धि को पुनः प्राप्त कर लिया।



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