पुरामहादेव एक हिन्दू मंदिर है जो कि पुर्णःतय भगवान शिव को समर्पित है। यह मंदिर भारत के राज्य उत्तर प्रदेश बागपत जिले से 30 किलोमीटर और मेरठ से 36 किलोमीटर दूर बालौनी कस्बे के पुरा गांव में स्थित है। यह भगवान शिव का एक प्राचीन मंदिर है। जो शिवभक्तों का श्रद्धा का केन्द्र बना हुआ है। ऐसा कहा जाता है कि यह मंदिर एक प्राचीन सिद्धपीठ है। पुरामहादेव मंदिर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्रसिद्ध मंदिर है या ऐसा कहा जा सकता है यह मंदिर उत्तर प्रदेश के प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है।
पुरामहादेव मंदिर कि ऐसी मान्यता है कि लाखों शिवभक्त श्रावण और फाल्गुन के माह में पैदल ही हरिद्वार से कांवड़ में गंगा का पवित्र जल लाकर परशुरामेश्वर महादेव का अभिषेक करते हैं। ऐसा करने से शिवभक्तों की सभी मनोकामनाएँ पूर्ण होती है। ऐसा कहा जाता है कि पुरामहादेव लिंग पर जल चढ़ाने से परशुराम प्रसन्न होते है।
वर्तमान में पुरामहादेव मंदिर है कभी बहुत पहले यहाँ पर कजरी वन हुआ करता था। इसी वन में जमदग्नि ऋषि अपनी पत्नी रेणुका सहित अपने आश्रम में रहते थे। रेणुका प्रतिदिन कच्चा घड़ा बनाकर हिंडन नदी नदी से जल भर कर लाती थी। वह जल शिव को अर्पण किया करती थी। हिंडन नदी, जिसे पुराणों में पंचतीर्थी कहा गया है और हरनन्दी नदी के नाम से भी विख्यात है।
रीमद्भागवत में दृष्टान्त है कि गन्धर्वराज चित्ररथ को अप्सराओं के साथ विहार करता देख हवन हेतु नदी तट पर जल लेने गई रेणुका आसक्त हो गयी और कुछ देर तक वहीं रुक गयीं। हवन काल व्यतीत हो जाने से क्रुद्ध मुनि जमदग्नि ने अपनी पत्नी के आर्य मर्यादा विरोधी आचरण एवं मानसिक व्यभिचार करने के दण्डस्वरूप सभी पुत्रों को माता रेणुका का वध करने की आज्ञा दी।
तत्पश्चात् ऋषि ने अपने तीन पुत्रों को उनकी माता का सिर धड़ से अलग करने को कहा, लेकिन उनके पुत्रों ने मना कर दिया। चौथे पुत्र परशुराम ने पितृ आज्ञा को अपना धर्म मानते हुए अपनी माता का सिर धड़ से अलग कर दिया। बाद में परशुराम जी को इसका घोर पश्चात् हुआ उन्होंने थोड़ी दूर पर ही घोर तपस्या करनी आरम्भ कर दी तथा वहाँ पर शिवलिंग स्थापित कर उसकी पूजा करने लगे। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर आशुतोश भगवान शिव ने उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिये तथा वरदान माँगने को कहा। भगवान परशुराम ने अपनी माता को पुनर्जीवित करने की प्रार्थना की और उनके द्वारा वध किए जाने सम्बन्धी स्मृति नष्ट हो जाने का ही वर माँगा। भगवान शिव ने उनकी माता को जीवित कर दिया तथा एक परशु (फरसा) भी दिया तथा कहा जब भी युद्ध के समय इसका प्रयोग करोगे तो विजय होगे।
परशुराम जी वही पास के वन में एक कुटिया बनाकर रहने लगे। हैहय वंशाधिपति कार्त्तवीर्यअर्जुन (सहस्त्रार्जुन) ने घोर तप द्वारा भगवान दत्तात्रेय को प्रसन्न कर एक सहस्त्र भुजाएँ तथा युद्ध में किसी से परास्त न होने का वर पाया था। ऋषि वशिष्ठ से शाप का भाजन बनने के कारण सहस्रार्जुन की मति मारी गई थी। सहस्रार्जुन ने परशुराम के पिता जमदग्नि के आश्रम में एक कपिला कामधेनु गाय को देखा और उसे पाने की लालसा से वह कामधेनु को बलपूर्वक आश्रम से ले गया। जब परशुराम को यह बात पता चली तो उन्होंने पिता के सम्मान के खातिर कामधेनु वापस लाने की सोची और सहस्रार्जुन से उन्होंने युद्ध किया। युद्ध में सहस्रार्जुन की सभी भुजाएँ कट गईं और वह मारा गया।
तब सहस्रार्जुन के पुत्रों ने प्रतिशोधवश परशुराम की अनुपस्थिति में उनके पिता जमदग्नि को मार डाला। परशुराम की माँ रेणुका पति की हत्या से विचलित होकर उनकी चिताग्नि में प्रविष्ट हो सती हो गयीं। इस घोर घटना ने परशुराम को क्रोधित कर दिया और उन्होंने संकल्प लिया-“मैं हैहय वंश के सभी क्षत्रियों का नाश करके ही दम लूँगा“। उसके बाद उन्होंने अहंकारी और दुष्ट प्रकृति के हैहयवंशी क्षत्रियों से 21 बार युद्ध किया।
कालान्तर में पुरामहोदव मंदिर खंडहरों में बदल गया। काफी समय बाद एक दिन लण्डौरा की रानी इधर घूमने निकली तो उसका हाथी वहाँ आकर रूक गया। महावत की बड़ी कोशिश के बाद भी हाथी वहां से नहीं हिला तब रानी ने सैनिकों को वह स्थान खोदने का आदेश दिया। खुदाई में वहाँ एक शिवलिंग प्रकट हुआ जिस पर रानी ने एक मंदिर बनवा दिया यही शिवलिंग तथा इस पर बना मंदिर आज परशुरामेश्वर मंदिर के नाम से विख्यात है।
इसी पवित्र स्थल पर जगद्गुरू शंकराचार्य स्वामी कृष्ण बोध आश्रम जी महाराज ने भी तपस्या की, तथा उन्हीं की अनुकम्पा से पुरामहादेव महादेव समिति भी गठित की गई जो इस मंदिर का संचालन करती है।
पुरामहादेव मंदिर का विशेष त्योहर सावन में शिव रात्रि है इस दिन लाखों लोग सावन के माह में पैदल ही हरिद्वार से कांवड़ में गंगा का पवित्र जल लाकर परशुरामेश्वर महादेव का अभिषेक करते हैं। इस दिन लाखों लोग महादेव का दर्शन हेतु आते है।