विंध्यावासिनी मंदिर हिन्दूओं का प्रमुख देवी स्थल है। यह मंदिर भारत के राज्य उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर से 8 किलोमीटर दूर विंध्याचल में स्थित है। यह मंदिर गंगा के किनारे पर स्थित है। विंध्यावासिनी माता, देवी अम्बा व दुर्गा के दयालू स्वरूप है। जो सभी की मनोकामना को पूरी करती है। विंध्यावासिनी देवी का यह नाम विंध्य रेंज से मिला है और विंध्यावसिनी नाम का शाब्दिक अर्थ है, ‘वह देवी जो विंध्य में रहती है’।
विंध्याचल क्षेत्र का महत्व पुराणों में मिलता है तथा पुराणों में इस स्थान को तपोभूमि के रूप वर्णित किया गया है। विंध्याचल पर्वत प्राकृतिक सौंदर्य का अनूठा स्थल है और धार्मिक महत्व से हिन्दू संस्कृति का अद्भुत अध्याय भी है। त्रिकोण यंत्र पर स्थित विंध्याचल निवासिनी देवी लोकहिताय, महालक्ष्मी, महाकाली तथा महासरस्वती का रूप धारण करती हैं। ऐसा माना जाता है कि विंध्यवासिनी देवी विंध्य पर्वत पर मधु तथा कैटभ नामक असुरों का नाश किया था, इसलिए भगवती यंत्र की अधिष्ठात्री देवी भी कहा जाता हैं। कहा जाता है कि जो मनुष्य इस स्थान पर तप करता है, उसे अवश्य सिद्धि प्राप्त होती है।
माना जाता है कि पृथ्वी पर वह स्थान शक्तिपीठ बने थे, जिस स्थान पर माता सती के शरीर के अंग व आभूषण गिरे थे। लेकिन विंध्याचल का यह मंदिर शक्तिपीठ कहा जाता है। मान्यता है कि, भगवान विष्णु ने जब देवकी-वासुदेव के 8वें बच्चे रूप में (भगवान श्रीकृष्ण) जन्म लिया था। तब नंद-यशोदा के यहां, उसी समय एक लड़की का जन्म हुआ था। जिनको वासुदेव ने आपस में बदल दिया था। जब कंस ने इस लड़की को मारने की कोशिश की तो वह लड़की, कंस के हाथ से बच गई और देवी रूप में बदल गई और कंस को बताया कि ओह !! बेवकूफ!! जो तुझे मारेगा, उसने जन्म ले लिया है, वह सुरक्षित है। इसके बाद, देवी, विंध्याचल पर्वत को निवास करने के लिए चुनती है, जहां मंदिर वर्तमान में स्थित है।
यह मंदिर भारत के सबसे सम्मानित शक्ति पीठों में से एक है। विंध्यावासिनी देवी को काजला देवी के नाम से भी जाना जाता है। भक्तों की बड़ी संख्या मंदिर की यात्रा करती है, खासतौर पर नवरात्रि के दौरान चैत्र और अश्विन के हिंदू महीनों में। काजली प्रतियोगिताओं ज्येष्ठ (जून) के महीने में आयोजित की जाती हैं।
महासरस्वती का एक मंदिर अष्टबुजा मंदिर है, जो विंध्य पहाड़ी से 3 किमी दूर है और एक गुफा में देवी काली का मंदिर है जिसे ‘काली खोह’ मंदिर कहा जाता है। तीर्थयात्रियों ने इन तीन मंदिरों का दौरा करते है, जो कि त्रिलोकन परिक्रमा नामक संस्कार का हिस्सा है।
मान्यता है कि, शारदीय व वासंतिक नवरात्र में मां भगवती नौ दिनों तक मंदिर की छत के ऊपर पताका में ही विराजमान रहती हैं। सोने के इस ध्वज की विशेषता यह है कि, यह सूर्य चंद्र, पताकिनी के रूप में जाना जाता है। यह निशान सिर्फ मां विंध्यवासिनी देवी के पताका में ही होता है।
विंध्यावासिनी मंदिर में सभी त्यौहार मनाये जाते है विशेष कर दुर्गा पूजा और नवरात्र के त्यौहार पर विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है। इन त्यौहारों के दौरान, कुछ लोग भगवान की पूजा के प्रति सम्मान और समर्पण के रूप में व्रत (भोजन नहीं खाते) रखते हैं। त्यौहार के दिनों में मंदिर को फूलो व लाईट से सजाया जाता है। मंदिर का आध्यात्मिक वातावरण श्रद्धालुओं के दिल और दिमाग को शांति प्रदान करता है।