यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते ।
सर्वसङ्कल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते ॥4॥
अर्थ: जब कोई मनुष्य न तो इन्द्रिय विषयों में और न ही कर्मों के अनुपालन में आसक्त होता है और कर्म फलों की सभी इच्छाओं का त्याग करने के कारण ऐसे मनुष्य को योग मार्ग में आरूढ़ कहा जाता है।
यदा-जब;
हि-निश्चय ही;
न-नहीं;
इन्द्रिय-अर्थेषु इन्द्रिय विषयों के लिए;
न-कभी नहीं;
कर्मसु-कर्म करना;
अनुषज्जते-आसक्ति होना;
सर्व-सङ्कल्प-सभी प्रकार के कर्म फलों की कामना करना;
संन्यासी-वैरागी;
योग-आरूढ:-योग विज्ञान में उन्नत; तदा-उस समय;
उच्यते-कहा जाता है।