यह श्लोक भगवद गीता, अध्याय 6, श्लोक 29 से है। यह संस्कृत में लिखा गया है और हिंदी में इसका अनुवाद इस प्रकार है:
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि |
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शन: || 29 ||
"गीता के इस श्लोक का अर्थ यह है कि एक योग में स्थित व्यक्ति सभी जीवों में परमात्मा को देखता है और परमात्मा में सभी जीवों को देखता है। उस योगयुक्त आत्मा वाले व्यक्ति के लिए हर जगह समान दृष्टि होती है।"
इस श्लोक में श्रीकृष्ण ने योग के माध्यम से आत्मा और परमात्मा की एकता का अनुभव कराने की बात की है। इसका मतलब है कि जब एक साधक अपने भीतर और बाहरी संसार में एकता को देखना शुरू कर देता है, तो वह किसी भी भेदभाव से परे हो जाता है। वह यह समझता है कि सभी जीवों में वही परमात्मा विद्यमान है और उसी परमात्मा में सभी जीव स्थित हैं। ऐसी अवस्था में योगी सभी जगह समभाव से देखता है और किसी को भी अलग नहीं मानता।
सर्वभूतस्थम्: - सभी जीवों में स्थित
आत्मानम्: - आत्मा या परमात्मा
सर्वभूतानि: - सभी प्राणी
च: - और
आत्मनि: - आत्मा में
ईक्षते: - देखता है, अनुभव करता है
योगयुक्तात्मा: - वह आत्मा जो योग के साथ जुड़ी है या जो योग में स्थिर है
सर्वत्र: - हर जगह, सभी स्थानों पर
समदर्शन: - समान दृष्टि, सभी में समानता की भावना।