यह श्लोक भगवद गीता, अध्याय 6, श्लोक 35 से है। यह संस्कृत में लिखा गया है और हिंदी में इसका अनुवाद इस प्रकार है:
श्रीभगवानुवाच |
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् |
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते || 33 ||
"हे महाबाहु (अर्जुन), इसमें कोई संदेह नहीं कि मन को वश में करना बहुत कठिन है क्योंकि यह अत्यंत चंचल और अस्थिर है। लेकिन, इसे अभ्यास और वैराग्य के द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है।"
मन की स्वाभाविक प्रवृत्ति चंचल और अस्थिर होती है। यह निरंतर विभिन्न विचारों, इच्छाओं और भावनाओं में भटकता रहता है। इसलिए इसे नियंत्रित करना अत्यंत कठिन प्रतीत होता है। लेकिन श्रीकृष्ण कहते हैं कि अभ्यास (ध्यान, साधना) और वैराग्य (सांसारिक वस्तुओं और मोह-माया के प्रति अनासक्ति) के माध्यम से मन को नियंत्रित करना संभव है।
यह श्लोक मन को नियंत्रित करने और आत्मज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया को सरल और व्यावहारिक रूप से समझाता है।
श्रीभगवानुवाच = श्री भगवान ने कहा।
असंशयं = निःसंदेह, बिना किसी शक के।
महाबाहो = हे महान योद्धा (महाबली अर्जुन के लिए संबोधन)।
मनो = मन।
दुर्निग्रहं = वश में करना कठिन।
चलम् = चंचल, स्थिर न रहने वाला।
अभ्यासेन = अभ्यास से।
तु = लेकिन।
कौन्तेय = हे कुन्तीपुत्र (अर्जुन के लिए संबोधन)।
वैराग्येण = वैराग्य (आसक्ति का त्याग) से।
च = और।
गृह्यते = वश में किया जा सकता है।